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Amit Kumar

Abstract

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Amit Kumar

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उदास आँखें

उदास आँखें

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बहुत तड़प उठा है

आज फिर दिल

तुम्हें याद करके

बेबस और मौन

शेक्सपियर की त्रासदी सा

मीर को ग़ज़लों सा

कबीर के दोहों सा

कभी भारतेंदु का मन

बन जाता है ओ

कभी भरतमुनि का

नाट्यशास्त्र

कभी दरिओ फो

का स्टैरिकल अंदाज़ सा

उन उदास आंखों की

मस्ती में

उदास मलंग बन

मीरा की रुबाई सा

और सूरदास की भक्ति सा

मेरा इश्क़

तुम्हें बंजारों सा खोजता है


काश! तुम

प्रेमचंद की कृति

नमक के दरोगा से

न होकर

बादल सरकार के

बल्लभपुर की रूपकथा से

या फिर

मंटो की बू जैसे

दिल में उतरने का

पाश की कविताओं सा

अंदाज़ रखते

तो यह उदास आंखें

कभी यूँ उदास

न होती...


यह आंखें हबीब तनवीर के

आगरा बाज़ार में

चरणदास चोर बन

मेरा क्या सबका

मन मोह लेती

काश! तुम

साहित्य की विधा से

स्वयं में

पारंगत होते...


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