STORYMIRROR

Shashi Aswal

Tragedy

4  

Shashi Aswal

Tragedy

तवायफ़

तवायफ़

1 min
397

जमीर को किनारे रख, खुद को बेचती हूँ

तवायफ़ हूँ साहब, अपना जिस्म बेचती हूँ।


कल किसी की जूली तो, आज किसी की रोजी हूँ

नाम में हैं क्या रखा, तुम्हारे लिए

तो बस जिस्म की एक नुमाइश हूँ।


सब मेरे जिस्म में उतरकर, है गोता लगाना चाहते

पर कोई रूह का परिंदा बनकर उड़ना नहीं चाहता।


मुझे बदनाम कर, खुद तो इज्जतदार बन जाते हो,

मुझे निर्वस्त्र कर, खुद कपड़े पहन चले जाते हो।


मेरे ख्वाबों के आशियाने को तोड़कर,

अपनी साख जताते हो,

मेरे स्त्रीत्व को रौंदकर, अपनी मर्दानगी जताते हो।


मेरे साथ हर कोई, है रात बिताना चाहता,

पर कोई जिंदगी के दो पल नही गुजारना चाहता।


सब के शौक, ख्वाहिशों को मैं पूरा करती हूँ,

पर मेरा क्या शौक है, ये कोई नहीं जानना चाहता।


जब भी कहीं बाहर निकलती हूँ 

सब धिक्कारत की नजरों से देखते है,

पर क्या कभी किसी ने अपने घर के मर्दों से पूछा ?

रात को कहाँ मुँह मार के आते हैं।


सब मुझ पर लक्ष्मी वर्षा की तरह बरसाते हैं,

पर कोई अपने घर की लक्ष्मी नहीं बनाना चाहता।


सब मेरे जिंदगी की रोशनी को तो देखते हैं,

पर मन का अंधेरा कोई नहीं देखना चाहता।


अगर अपनों का साथ होता तो,

मैं भी सपनों की उडा़न भरती

पंख लगाकर अरमानों के

नील गगन में फुर्र उड़ जाती।


हाँ, हूँ मैं तवायफ़

मुझे ये कहने में शर्म नहीं,

क्योंकि खुद के आशियाने को बर्बाद करके

तुम लोगों के घरों को आबाद करती हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy