STORYMIRROR

Surendra kumar singh

Abstract

3  

Surendra kumar singh

Abstract

तुम्हारे लिये

तुम्हारे लिये

1 min
336


तुम्हारे लिये

लो आज दिन भी बोल उठा

सौंदर्य! तुम्हारे होने से भर उठा

तुम्हारे बोध से संतृप्त हो उठा

तुम्हारे होने से और बदल उठा बोल में।


कितना दिलचस्प है आज

आज का सब कुछ कि

दिन घबरा रहा है अपने न गुजरने से

सोच रहा है क्या कहेगा जमाना

जमाना मेरे इस ठहराव को

सदियों से उसकी धारणा रही है


मेरे चलते रहने की और

मैं बेबस सा ठहर गया हूँ

एक अजनवी के सौंदर्य में।


क्या कहेगा जमाना मेरी ही इस आसक्ति को

कि किसी के लिये ठहर गया हूँ मैं

और मजा तो इस ठहराव में भी है

चलते रहने का, चलते रहने सा।


सुधि बुद्धि खो बैठा है समय

तुम्हारे सौन्दर्य से अभिभूत हो

सोच रहा है मैं कैसे ठहर सकता हूँ

शायद मेरी कामना ठहरी हुयी है

ठहरना भी चाहिये यहीं इसी सौंदर्य में

चलते रहने सा आनन्द लेते हुये।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract