तुम्हारे हाथों की गर्मी से
तुम्हारे हाथों की गर्मी से
राहत तुम्हारे हाथों की गर्मी से
रोम रोम की सरमा भी तमाम से है
लाज़मी सिसकियां पिघलती आब से है
ज़ीस्त के ह़रारत चश्म की शरारत से है
दबी ज़हमत अब रहमत रुत-हवाओं से है
गहरे लम्स तेरे , फ़िज़ा में गुमसुम से है
इन एहसासों की क़्या अल्फ़ाज़ बाक़ी...
फ़कत न होने की महसूस से है
रू-ब-रू होऊं महकार यूं इबादत ऐलान से है
महज़ लफ़्ज़ो कि नर्मी सरशार लहज़े से है
बसेगी यादों में पल अब नए ज़मी से है
हमारी आग़ोशी के गर्मी रूहानी चाशनी से है
की आहिस्ता आहिस्ता चाहत तुझ से है,,
तुम्हारे हाथों की गर्मी से...दरमियां
हमारे लबों के नर्मी तक है;।।
