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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Romance

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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Romance

तुम हो कहाँ।

तुम हो कहाँ।

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परेशां हो सनम 

निगाह मेरी

ढूंढती तुम्हें जाने जां 

तुम हो कहाँ

तुम हो कहाँ।।


कुछ न सूझा

हर शै से पूछा

कुम्हलाई हर कली

तेरे प्यार की गली में

जो थी मैंने सजन

बड़ी जतन से लगाई

अब वीराना है यहाँ 

तुम हो कहाँ

तुम हो कहाँ।।


तरस रही हैं आँखें

बिन तुम गुल भी बनीं

चुभती सलाखें

अब बस भी करो 

आओ इक तुम्हारा ही 

इंंतजार है सजन

अंंग अंंग बेकरार है

बेकरार है यह परवाना

जानती तुम भी तो हो

इस बेकरारी का करार 

बस तुम हो मेरी प्रीत मेरी जां

तुम हो कहाँ

तुम हो कहाँ।।


 


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