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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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टूटे ख़्वाब

टूटे ख़्वाब

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ख़्वाब हमारे बहुत चकनाचूर हुए

रिश्तों के फंदों में हम नामंजूर हुए

हम भी कितने ज्यादा मजबूर हुए

खुद के लहू से हम कितने दूर हुए

सज़ा दी खुद को बिना इल्जाम ही,

अमीर रिश्तों में गरीब मजदूर हुए


ख़्वाब हमारे बहुत चकनाचूर हुए

नदी में रहकर प्यासे हम खूब हुए

लहूं निकल आया, बिना चोट ही,

हम स्व अक्स से बहुत दूर हुए

लगा रखी थी हमने क्यों आशा?


हम आज निराशा के तंदूर हुए

ख़्वाब हमारे बहुत चकनाचूर हुए

भरे सावन में बहुत सूखी बूँद हुए

फिर भी जीवन-रण में लड़ेंगे जरूर

दर्द सहकर भी अभिमन्यु बनेंगे जरूर


ख़्वाब चाहे मेरे बहुत चकनाचूर हुए,

पर फिर भी हम तो बहुत मशहूर हुए

अपनी अच्छी करनी से हम साखी

ज़माने में कोहिनूर क्या खूब हुए



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