टहनियां
टहनियां
लहरा रही थीं नई कोंपले
विशाल पेड़ की टहनयों पर।
चहकते थे पंक्षि डाल - डाल पर
छनती थीं किरणें पत्तों को छूकर।
बूंदों की मिठास पुलकित कर जाती
धुले हुए मौसम हैं चमक बिखराती।
हवा के संग - संग सारा जंगल गुनगुनाए
नीले अम्बर तक बढ़ने का टहनी ख्वाब़ सजाए।
बदला रूत पेड़ फूलों से श्रृंगार कर मुस्कुराए
मौसमी फलों के इंतज़ार में मन बड़ा इतराए।
कितना सहज गुजर रहा था लम्हा-लम्हा यहां
कौन सोचता है तूफ़ान से हो कभी सामना।
आंधियों की रुप - रेखा कोई उकेर सकता कहां।
तेज हवाओं ने पहले सूखे पत्तों को उड़ाया
बढ़ा कर अपनी ताकत टहनियों पर जोर लगाया।
उम्मीद ना थी इतना लड़कर भी टूट जाएंगे
सहेजे अपने फूल - पत्ते जमीं पर बिखर जाएंगे।
पेड़ झुककर उठा सकता नहीं जो उससे जुदा हुए
बचे हुए अस्तित्व को बनाए रखना है दायित्व उसका।
खाली अपनी जगह को टूटी टहनियां निहारती हैं
था क्या अपराध ईश्वर से जानना चाहती हैं।
क्यों बेवक्त वो अपनी डाली से विलग हो गई
नीड़ को सुरक्षित करने की शक्ति क्षीण हुई।
धीरे-धीरे मिट्टी में समाहित होते हुए
टहनी ने इस सत्य को जाना,
अपनी ही जड़ों में मिल कर है
मुझे अपना वजूद उठाना।
किसी-न-किसी रूप में मैं
इस वृक्ष का हिस्सा रहूंगी
पोषक बनकर अब मैं इन जड़ों को
और भी मजबूत करूंगी।
हे परमात्मा, नहीं शिकायत
तुम्हारे बनाए संरचना से
जान लिया तू मिटाता नहीं बल्कि
बेहतर बनाकर लौटाता है।