थोड़ी देर ठहर जाओ...
थोड़ी देर ठहर जाओ...


थोड़ी देर ठहर जाओ...
अब बहुत हो चुकी देर !
यूँ कब थक चलते रहना...
कहाँ है मंज़िल... ? कहाँ है ठिकाना... ?
ऐसे कब तक चलना है अंधी दौड़... ?
अब आदत-सी पड़ गई होगी
तुम्हें अपने हालात से मात खाने की !
अब तो आसान नहीं जज़्बात बिना ज़िंदगी...
दिल की बाज़ी बेशक़ तुम हार जाओ, ऐ दोस्तों,
मगर कभी खुद से ही मात न खा जाना...!!
इन गगनचुंबी इमारतों के बाहर भी
एक दर्द भरी ज़िंदगी की अनसुनी दास्तां है...
कभी अपने दिल में हाथ रखकर
अपनी खुदगर्ज़ी से तौबा करो,
तो ही तुम जान पाओगे
कैसी कशमकश भरी है ये ज़िंदगी का सफरनामा...!!!