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रिपुदमन झा "पिनाकी"

Inspirational Others

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रिपुदमन झा "पिनाकी"

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तब गाँव हमें अपनाता है

तब गाँव हमें अपनाता है

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जीवन की आपा-धापी में जब वक्त कहीं रुक जाता है।

सपनों की भूल-भुलैया में जब ख़ुद को भूला जाता है।

दुनिया के मेले में अपना मन बहुत अधिक घबराता है।

ख़ुद को पाने की चाहत में ख़ुद से ही जुदा हो जाता है।

तब गाँव हमें अपनाता है।


मन गहरे अंधे लहरों में जब डूबता है उतराता है।

नैनों के सरोवर में सुन्दर सपनों का कमल कुम्हलाता है।

इन राहों में चलते-चलते पाँव छलनी हो जाता है।

एकाकीपन का शूल सदा अंतर्मन को छिल जाता है।

तब गाँव हमें अपनाता है


ख़्वाबो की धरती पर अपने सपनों के महल बनाता है।

लेकिन क़िस्मत की ठोकर से वह टूटता है ढह जाता है।

दिन रात सिसकती है उम्मीद अरमान कहीं लुट जाता है।

जब आस निराश के तूफां से मन पार नहीं पा पाता है।

तब गाँव हमें अपनाता है।


संबंधों में अपनापन और एहसास नहीं मिल पाता है।

मर्यादा की छोटी चादर में छेद बहुत दिख जाता है।

आधुनिकता के पाँव तले जब संस्कार बिछ जाता है।

संस्कृति, सभ्यता का महत्व जब लुप्त यहां हो जाता है।

तब गाँव हमें अपनाता है।


पैसों की अंधाधुंध दौड़ में पांँव दौड़ता जाता है।

हासिल करने की कोशिश में कुछ हाथ नहीं आ पाता है।

बचता है तो बस खालीपन जो कभी नहीं भर पाता है।

इस भीड़ भरी दुनिया में जब ख़ुद को तन्हा ही पाता है।

तब गाँव हमें अपनाता है।


कच्ची मिट्टी का छोटा-सा घर याद बहुत ही आता है।

बरगद की छांँव बुलाती और नीम का पेड़ बुलाता है।

रखते ही क़दम इस धरती पर मन ख़ुशियों से भर जाता है।

चुटकी भर धरती की माटी का माथे तिलक लगाता है।

तब गाँव हमें अपनाता है।


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