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तार्रुफ़

तार्रुफ़

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अनहद बहकने से ठीक पहले,
गुमनामी के मोड़ से कुछ ही दूर...
दौलतों का इल्म क्या छोड़ा हमने,
ज़िन्दगी ने ख़ुशी से तारूफ़ करा दिया...

राहत की बाहें पकड़े हमने पन्नें पर,
जज़्बात बुनने को जब क़लम उठायी..
सोने की अशर्फियों के एहसास पर से,
काले नकाबों सेे पर्दा उठा दिया...

हाशिये ने आखिर तक साथ निभाया,
थामी कलाई कुछ ऐसे औऱ कहा..
न मुड़ना कभी उस ओर.. एक बार औऱ... देते हुए ज़ोर..
कागज़ की भीनी इस महक हमको,
बेखुद जीना सीखा दिया...

हमदमों की सोहबत कुछ ऐसी हुई,
रेगिस्तान की मिट्टी गीली जैसे हुई...
लाखों आंखों से गिरे अश्कों ने मेरे लिए,
गर्म रेत पर फूल खिला दिया...

जो सीखे वो सबक सिखाने के लिए,
अनदेखे रास्ते दिखाने के लिए...
गैरों के ग़म का दम क्या भरा,
खुद के ग़म भुलाना सीखा दिया...

यही उतार अपने ज़हन की कसक,
न रुक कभी.. न तू भटक...
यही कहती रही स्याही आखिर तक...
क़लम की इस पैनी नोंक ने मुझे,
शमशेरों से लड़ना सिखा दिया...


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