सज़दा
सज़दा
कभी करीब इतना कि जैसे रूह का हिस्सा होते हो
और कभी सात आब-जू से भी परे होते हो
किस तरह से समझूँ तेरी जात क्या है
कभी तुम आम तो कभी सोने से खरे होते हो
ये तेरा इश्क़ है या दिल्लगी का दिल है
कभी जलाते हो आग से और फिर ख़ुद ही नीर होते हो
ख़ुदा के दर जाऊँ या सज़दा करूँ तेरा
कभी तुम उसके बन्दे तो कभी पीर होते हो