परिवेश
परिवेश
अब भी वक़्त है कि सीलें जाएं
उजड़े हुए दश्त सभी
कभी यूँ ना हो बिकने लगें,
साँसे भी ऊँचे मकानों में
अपना जीव,अपनी स्वास,
अपने प्राण में हुए मस्त सभी
भावुकता, और संवेदना कहीं
कैद पड़े तहखानों में
आँगन में बिछा कर पक्की ईंट
बन गए सम्पन्न सभी
लगता है महकते फूल बचे हैं मात्र
कच्चे मकानों में
बन्द दरवाज़ों पर मिट्टी के डर से,
शीशे जड़ हुए स्वस्थ सभी
स्वास रोग ही ले गया,
मिलाने मिट्टी से अब श्मशानों में
