प्रकृति
प्रकृति
हे माँ !
प्रकृति हम सब जन क्षमाप्रार्थी
अन्नदात्री ये धरा जीवनदायिनी
ये धरा विलाप आज कर रही
रुदन हृदय को चीरता विकास ,
उत्थान के नाम पर हो रही है दुर्गति
हे माँ ! प्रकृति
हम सब जन क्षमाप्रार्थी
सूखे खेत खलिहान प्यासे खड़े हैं
धान एक गर्जना की बाट में बंजर हो गए
मैदान लुप्त हो रही नित सरिता
ये कैसी है प्रगति
हे माँ !
प्रकृति हम सब जन क्षमाप्रार्थी