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Amit Kumar

Abstract

1.0  

Amit Kumar

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स्वयं

स्वयं

2 mins
343


जिसने ह्रदय हार दिया हो

आपकी चरणधूलि पर

जो सदैव आपके कृत्यों से

प्रेरणा पाता हो


जिसने मुस्कुराहट को आपकी

अपना लिया हो ह्रदय से

जो जीवन का सार 

केवल आपके

शब्द संचय से पाता हो


जिसके लिए आपके नयन

क्षितिज का वो क्षोर हो

जो दिखता तो है

किंतु जिसे छूना भृम मात्र हो

जो आपके माथे की शिकन को

ज़िन्दगी की उलझनों को


सुलझाने का एक प्रयास समझता हो

वो क्या जीत सकता है आपसे

जो पथ-पथ पर प्रेरित हो आपसे

जिसके लिए आपके मधुर होठं

स्नेहवन्दन हो आरती सा

जो समर्पित हो आपको


अपनी तमाम वेदनाओं सहित

जिसके मनोरथ में आपकी

शुभकामनाएं बिछी हो पग-पग

वो आपकी खुशियों की कामना को

अपना मात्र एक ध्येय समझता हो


आप क्या नही है स्वयं में

बस उक्त रही है स्वयं से

बस रूठी हुई है स्वयं से

जाने वो क्या ज़िद है

जिसने रोक रखा है


आपके स्वयं को

जाने वो कौन सी पीड़ा है

जिसमें बंधा हुआ

आपका अंतर्मन

जाने वो कौन सा

अविश्वास है


जो मेरे विश्वास

से भी अडिग है

तभी तो छू नही सकता

मेरा स्नेह आपकी

प्रतिछाया की छाया को

जाने वो कौन सी कड़ी है


जिसे आपने जकड़ रखा है

अपने ही स्वयं में

एक क़दम बस क़दम

और सारी पीड़ाएँ

सुखमय हो जाएगी

आपकी बेड़ियां ही

आपकी राहत बन जाएगी


बस प्रेम करो खुद से

और विश्वास करो स्वयं का

फिर देखो आनेवाला सूर्य

कैसे हरता है अंधेरा ह्रदय का

मुस्कुरों और आवाज़ दो

अपनी आकांक्षाओं के


उन्मुक्त परिंदों को

और विचरण करने दो 

अपने ह्र्दयकाश पर

चूमने दो उन्हें अपनी अधूरी

स्मृतियों के पदचिन्हों को


पाने दो उन्हें अपने अधूरेपन को

और एक होने दो स्वयं को स्वयं से

फिर देखो उस उन्मुक्त गगन को

उन उन्मुक्त राहों को

जो पग पसारे


जो बाहें पसारे

आपके स्वागत में झुकी है

आपकी अधूरी खुशियां

आपकी अधूरी ख़्वाहिशें 

बस आपमें ही कही रुकी है।


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