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Kusum Joshi

Abstract

3  

Kusum Joshi

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स्वप्न सुन्दर

स्वप्न सुन्दर

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अंधेरी रात थी निर्जन इलाक़ा,

डर मुझे पर था नहीं,

आंखे झुकी, सांसे रुकी,

आलम भी ऐसा था नहीं,


चल रही थी मैं अकेली,

कोई नज़र ना मुझपर रुकी,

ना किसी की वासना - मय,

कुदृष्टि आ मुझपर टिकी,


घबराहट ना कोई मुझे थी,

आज क्या हो जाएगा,

ना ही चिंता थी मुझे कि,

घर मेरा कब आएगा,


निश्चिंत सी चलती रही मैं,

आनन्द लेती रात का,

ल़ड़की अकेली मैं ही हूँ,

कोई भय ना था इस बात का,


मैं मगन अपनी ही धुन में

घर के निकट थी आ गई,

पर भाव ऐसा कुछ था नहीं की,

आज फ़िर मैं बच गई,


ना ही मैंने घर पहुंच,

ये सोचकर सजदा किया,

कि तुमने प्रभु एक रात फ़िर,

मेरी अस्मिता का रक्षण किया,


उस सुखद सी रात का,

आनंद लेती मैं तभी,

मेरा स्वप्न सुन्दर तोड़ती,

अलार्म देने लगी मेरी घड़ी,


सपना मेरा फ़िर टूट बिखरा,

रोशनी में धूमिल हुआ,

घर से निकलने से पूर्व आज फ़िर,

भगवान का वंदन किया,


सुरक्षित मैं घर वापस आ सकूं,

इस बात की अरदास थी,

पर मन में कहीं मेरी प्रार्थना में,

स्वप्न वाली रात थी,


कि काश वो सपना,

हक़ीक़त में बदल जाए कभी,

कि मैं चलूँ निर्भीक सी,

वो रात तो आए कभी।


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