स्वाभिमानी स्त्री
स्वाभिमानी स्त्री


एक स्वाभिमानी स्त्री सबकी हां में हां
और ना में ना कहना नहीं जानती
झूठ की दौड़ में वह रिश्तों को नहीं बॉंधती
हां वह सच निभाना जानती है
स्वांग रच कर वह
बातों को बोलना नहीं जानती
वह तो सिर्फ बेबाकी से
सच बोलना जानती है
उसे गहने कपड़ों का शौक नहीं
स्वाभिमान ही उसका गहना है
आत्मविश्वास से खुद को है निखारती
व्यक्तित्व में मुस्कान लाती है
वह अपनें सपनों को पूरा करती है
घर भी बखूबी संभालती है
बस वह सिर्फ किसी की
अनर्गल बातों को नहीं मानती है
वह जी हजूरी पसंद नहीं करती
बेकार किसी के आगे नहीं झुकती
झुकती है सिर्फ वही पर जहां
रिश्ते ,प्रेम और सच की मजबूरी होती है
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फिजूल की बहस वो करती नहीं
तर्क से है वो अपनी बात रखती
अनुशासन में रहकर वह
सच्चाई से जीती है
गलतियों पर वह टोकती है
गलत काम को रोकती है
कितनी भी तकलीफ हो
वह सब संभालती है
वह नतमस्तक नहीं होती
पौरुषता के आगे
झुक जाती है वह तो
निस्वार्थ प्रेम के आगे
वह टूट जाती है
दिखावे और छलावे से
जुड़ नहीं पाती है वह
झूठे प्रेम के भावों से
एक स्वाभिमानी नारी
जब स्वाभिमान से जीती है
इस पुरुषवादी समाज के लिए
थोड़ा असहनीय बन जाती है
विचारों से स्वतंत्र होकर
वह आलोचना भी पाती है
पर दृढ़ निश्चय से आगे बढ़कर
हर दर्द पर विजय पाती है