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Kanchan Prabha

Abstract

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Kanchan Prabha

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सुनहली सी एक सिन्दूरी साँझ

सुनहली सी एक सिन्दूरी साँझ

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सुनाई देती है वही

सुरीले पंछी की चहचहाहट फिर से


है हवाओं में शीतल सी

वही गीतों की गुनगुनाहट फिर से


दिखाई देती है अब

साँझ की दुल्हन में शरमाहट फिर से


फूलों पर रंगीन तितलियों की

नजर आती है फड़फड़ाहट फिर से


गंगा भी अब मैली नहीं

उसकी निर्मलता में है सरसराहट फिर से


प्रदूषण की धुँध हुई विलय अब

इन वादियों में आई है खिलखिलाहट फिर से


धानी चुनर वह आश्मां में 

रुई के बादलों में गड़गड़ाहट फिर से


सफेद मोतियों की बूंदों में है

छनछन पायल की छमछमाहट फिर से


प्रकृति की सांसो पर सजती है

सदियों पुरानी वही मुस्कुराहट फिर से


रजनी की गोद में सजी पृथ्वी की

वही स्वर्ण कमल सी टिमटिमाहट फिर से।


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