सुख का साथी
सुख का साथी
अक्सर यह होता है ,
अकेले बैठे -बैठे अतीत में विचर कर वह जब वापस होती हैं ,
आंखें नम होकर ना जानें कितनी बातें कहती हैं।
असीम नभ- सा मन पर ,
छाए यादों के घनेरे बादल अविरल अश्रुधार बन बरस तब पड़ते हैं।
मूल्यवान मानव जीवन के
अनमोल स्वप्न कुछ उसके थे।
सबको परिणय की वेदी पर कर
न्यौछावर नया जन्म ले,
नवबधू रूप यह पाया था ।
नई नवेली थी वह,पर देख रही थी । अपनी रूचि का, जो खेल वह खेल पुराना था ।
अपना टीम हरफनमौला शत्रु टीम का गेंदबाज चकर नजर आता था ।
चौंका,छक्का और शतक के उम्मीदों के ताने बाने से उलझी वह
जीत पर उत्साह में भरकर खुशी से चिल्लाई थी ।
खुशियाँ ढूंढ रही थी , उल्लसित हो साथ किसी का,
अभी-अभी तो खुली थी मन की खिड़कियाँ,
पल में पलङो को भिङका स्वयं में वह सिमट गई थी।
अकेलेपन में जो साथ दिया था, साथी बन
वह था नयनों का गीलापन।
बरसों बीते फिर भी ना सूखा यह गीलापन
मन के दरारों से रिस-रिस कर यथावत रिश्ता निभा रहा है।
