सुहागरात
सुहागरात
मैं सिमटी बाहों में अपनी ,
सोच शब्द ये " सुहागरात " ,
कितने अनगिनत सवालों की ,
आई थी अब नई रात।
बाहर आँगन में गूँज रहा ,
ठहाकों का अनोखा शोर ,
अंदर मन मचल रहा ,
बनके कोई चितवन चोर।
वो आये हौले से ,
कमरा खिल उठा एकदम ,
उनके छूने से .....
बजने लगी नई सरगम।
पलकें भीगने फिर लगीं ,
जब वो बोले " सुहागरात ",
इस शब्द से लगता डर ,
जिसकी होती हर जगह बात।
वो हँसने लगे जोर - जोर ,
कर संधि - विच्छेद उसका ,
सुहाग - रात का मतलब ,
होता एक नया स्वपन जग का।
जो रात बीत जाए ,
अपने सुहाग के संग ,
बस और कुछ नहीं ,
लाती ये भी नए रँग।
मैं मूंद पलकें तब सोई ,
रख काँधे पर सर उनके ,
वो रात गुजर गई ,
बिना तन के मिलन के।
जब मन का मन से हुआ मिलन ,
तब तन खुद~ब ~खुद मचल गया ,
आने वाली बाकी रातों में ....
" सुहागरात " का मतलब समझ गया।।