सुगीत
सुगीत
गीत क्या कभी कहा है
किसी ने
तुम्हारे अंदर दुख जमा है
गाद सा
जो दिखता है तुम्हारी आँखों में।
मैं जानती हूँ
तुम चिंतित हो
लोग जिस हाल में हैं
बजबजाती कीड़ो से बदतर ज़िंदगी
परेशान करती है
तुम्हें और मुझे भी।
तुम करते हो जितना वही करो
दुखों के पहाड़ क्यों जमा करते हो
आत्मा दिल दिमाग़ में
दब जाओगे तुम
लोगो को ख़ुशी देने के लिए ज़रूरी है
तुम खुश रहो
जो है तुममें वही दे पाओगे।
एक सवाल करूँ
क्या तुम्हारे दुखों में डूबने से
हालात बदल जायेंगे
बदल जायेंगे यहाँ के बदजात संस्कार
रीति रिवाज़ परम्पराएँ
बदल जायेगी
क्या तस्वीर बनारस की
मंदिरों की जगह
इन्सानियत उग आयेगी ?
नहीं प्रिय कुछ नहीं बदलेगा
सिवाय तुम्हारे...
छीजता जायेगा तुम्हारा वज़ूद
घुटते घुटते इस खौफ़नाक मंज़र में।
ये मद्धम ज़हर मार देगा
तुम्हें कहती हूँ
हँसों प्रिये
देखो कबूतर का जवान बच्चा
कल बालकनी में मरा पड़ा था
अफ़सोस...!
रोज दाना पानी रखना नियम बना लिया
अब-आती हैं नौ-दस कबूतरें चुगने दाना
औ कहती हैं शुक्रिया बहन।
लगा लिए हैं घी कुँवार, बेला
तुलसी मनी प्लान्ट महोगनी
भांति भांति की बेलें और पौधे
शायद कुछ प्रजातियों को बचा सकूँ
सब बचाने का उद्योग मेरे वश में नहीं।
दुनिया बड़ी है
लेकिन मसाइलें दस गुना बड़ी
प्रयास जारी है मेरा।
ख़ुशी के गीत के साथ आँसू का क़तरा
ढुलक जाता है
जिंदगी ऐसे ही जियों प्रिये!
बचा लो खुद को
उबारों स्वयं को दुख से
रखना है सँजोकर तो रखो मेरा प्यार
मेरा साथ-हाथ मेरा
अपनापन मेरा।
खिलखिलाहट हँसीं की
सुगंध फूलों की-हरियाली पत्तियों की
अकेले नहीं हो कहीं तुम।
प्रकृति कबसे मसाइलों से जूझ रही है
लेकिन थकी क्या
तुम तो कण मात्र हो
जो क्षण भर का जीवन है
इसे इन्द्रधनुषी रंगों, नरम घासों
चहचहाती गौरैया औ अपनी हँसी से भरो
तुम जीवंत हो... तो
दुखों का भार कम होगा
बुद्ध कह गए सुना नहीं...
सम्यक दृष्टि।
सम्यक... तुम...?