सुबकता बचपन
सुबकता बचपन
सुबक रही थीं धड़कन उसकी,
आँखें थी पथराई हुई,
उस मासूम के सपनों की,
फिर से आज धुलाई हुई।
दौड़ रहे थे मूस पेट में,
आँखें थी ललचाई हुई,
उस मासूम की ताक़त की,
फिर से ज़ोर आज़माई हुई।
उड़ना चाहता वो भी था,
पर गरीबी थी लाचारी थी,
अब मासूम के कंधों पर जो,
घर की ज़िम्मेवारी थी।
उम्र से पहले बड़ा हो गया,
जीवन तो जीना ही था,
दुनिया से लड़ता अब वो,
ज़ख़्मों को सीना ही था।
बातें तो मासूम थी उसकी,
पर उनमें अब गहराई थी,
नफ़रत फेंकी दुनिया ने,
पर सूरत न मुरझाई थी।
वही तेज़ था, वही बचपना,
और आँखों में सच्चाई थी,
पर छीन लिया जो बचपन उसका,
उसकी न भरपाई थी।
बाप ने छोड़ा, माँ ने छोड़ा,
अब न कोई अपना था,
खेल, खिलौने, माँ का खाना,
ये तो बस अब सपना था।
गाली खाई, थप्पड़ खाया,
कितना ही तिरस्कार सहा,
क्या ख़्वाब और क्या ही सपने,
इनपे न अधिकार रहा।
हाथों ने अब बर्तन पकड़े,
किताब क़लम की विदाई हुई,
कोमल हाथ कठोर हुए हैं,
मेज़ की फिर सफ़ाई हुई।
उम्मीदों ने भी साथ है छोड़ा,
ख़्वाबों की रगड़ाई हुई,
उस मासूम के बचपन की,
तंदूर में फिर सिकाई हुई।
सुबक रही थीं धड़कन उसकी,
आँखें थी पथराई हुई,
उस मासूम के सपनों की,
फिर से आज धुलाई हुई।