सुबह की बात
सुबह की बात
पलंग पर लेटी मेरी माँ
पढ़ रही है अपनी किताबें
आँखें धीरे-धीरे बोझिल होने लगी
पढ़ते-पढ़ते बंद गईं पलकें
सो गई गहरी नींद में
कमरे में चल रहे पंखे की हवा से
हिल रहे थे खिड़की के परदे
बंद कमरे में बंद खिड़कियों से
छनकर आ रहा था
मद्धम - मद्धम प्रकाश
जो अठखेलियाँं कर हवाओं से
टकरा रहा था माँ के चेहरे से।
माँ की आँखों पर पड़ता
मद्धम लेकिन ढीठ प्रकाश
आँखों की पुतलियांँ
सहला रहा था
और माँ भी बार - बार
उस प्रकाश की छुअन से बचने को
ढँक लेती अपने चेहरे को
अपने ही आँचल से
आँचल से छनकर आता
थोड़ा-सा प्रकाश
हिलाता रहा उसकी पलकें
अंधेरे में भी करता रहा
सुबह की बात।
