मक़सद
मक़सद
समाज को समझने में लगा हूँ मैं
बहुत कुछ बदलने आगे बढ़ा हूँ मैं
ऐ लोगो ज़रा सा तो बालिग़ हो जाओ
मैं, वो और तुम को 'हम' करने चला हूँ मैं।
दुनिया हमारी बड़ी ही है अनमोल
हजारों रंग जिसमे खुदा ने रखे हैं घोल
फिर भी मिलजुलकर आगे बढ़ते रहना है हमें
क्यूँ पीटे जा रहे हो खुद की अज़मत का ढोल।
चलो सोचते हैं एक बार
ऐसी दुनिया की ख़ूबसूरती
जहाँ न फितना, न फ़साद और
न कोई बुराई हो डोलती
मैं बढूँ, तुम बढ़ो, हम बढें का नारा
जब पूरी क़ायनात की आवाम ही बोलती।
क्या कौम, क्या मज़हब, क्या ज़ात
और क्या रंग की है जाहिलियत
बिना सोचे समझे हम सब करते
और सीखते जा रहे हैं हैवानियत।
अरे हम सब एक ही ख़ुदा
की क़ुदरत का हैं करिश्मा
जिनका सिर्फ एक फ़र्ज़ है
और वो है इंसानियत,
वो है इंसानियत, वो है इंसानियत !
आज के दौर से डरने लगा हूँ मैं
अपने मक़सद से पीछे हटने लगा हूँ मैं
क्या करूँ, लोगो के ज़हनियत
और रवैय्ये बदलना तो दूर
खुद ही इस गफ़लत में फ़सने लगा हूँ मैं।