सुबह का भूला
सुबह का भूला
कितने चले हैं ज़िन्दगी में
सुहाने सफर की तलाश में
नए सपने झोली में लेकर
ज़िन्दगी को तराशने।
देखें हैं अनगिन्नत पाँव
दहलीज़ों को छोड़ते हुए
नई हसरतों को पाने,
नए ख्वाब सजाने के लिए।
न जानते हैं जाना कहाँ,
और कहाँ मिलेगा दिल को करार
क्या अलग हैं उनकी ख्वाइशें
या ढूँढ़ते हैं अलग संसार?
सर खपा के मशीनों से
और रातें सड़कों पर गुज़ारकर
भीगी पलकें,सूझे चेहरे,
पथरीली ज़मीन, खुला अम्भर
न सुबह का तारा न रात की चांदिनी
भयानक रातें और दिल वीराने
क्या क्या पीछे हैं छोड़ आते
भीड़ में खुद से मिलने अकेले।
खोया रहता है दिल का चैन
ज़िन्दगी भी कुछ खोई खोई
चमचमाती रातें, आँखें बोझिल
न जाने कहाँ ढूंढे ख़ुशी की परी।
शहर शहर यूं घूमकर
सुबह से कितनी शामें हुई
न जाने कितनी ज़िंदगियाँ
ज़िंदा से लाशें हो गई।
आखिर थी क्या कोई कमीं
उन छोटे छोटे आशियानों में
जो ज़िन्दगी का ज़हर पीने
अनजान राहों पर निकले सिमटने।
एक बार लौट आओ मुड़कर
उस, अपने बचपन के गांव में
छोड़ आओ चमचमाती बस्तियां
न लगाओ ज़िन्दगी दांव पे।
सुबह का भूला वापिस यदि
लौट आये घर शाम को
वह भूला न कहलायेगा
जो इज़्ज़त देगा हर काम को।
