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स्त्री

स्त्री

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ओ स्त्री !

तू है त्याग की मूर्ति कहते हैं सब

करती त्याग अपनी इच्छाओं का

होम करती जीवन अपना

प्रारम्भ से अंत तक

गृहस्थी की वेदी पर


स्त्री तू है त्याग की मूर्ति

बलिदान कर देती तू

अपनी साँसों को

बेटे की आस में जीते

अपने माता-पिता पर

छोड़ जाती है संसार भाई के

जन्म लेने की ख़ातिर।


स्त्री तू है त्याग की मूर्ति

त्याग करती है अपनी रातों की

नींदों और दिन के सुकून का

आधा सोते आधा जागते हुए

बच्चे को बड़ा करने के वास्ते।


स्त्री तू है त्याग की मूर्ति

दिन भर की हाड़ तोड़

मेहनत के बाद भी

स्वयं भूखी रह जाती है

परिवार का पेट भरने के लिए

अपने हिस्से की रोटी दे देती है

कभी बच्चों कभी पति को

बिना जताए हुए।


स्त्री तू है त्याग की मूर्ति

दफना देती है अपनी

आकांक्षाओं को

त्याग देती हो अपनी नौकरी

कभी पति का अहं शान्त करने

तो कभी बच्चों को पालने की ख़ातिर।


स्त्री तू है त्याग की मूर्ति

उत्सव त्योहारों पर चला लेती हो काम

पुराने वस्त्रों से

खर्च कर देती हो बचा कर रखे पैसे

अपने बच्चों के चेहरे की

एक मुस्कान के लिए।


स्त्री तू है त्याग की मूर्ति

वही बच्चे जब बड़े होकर

दुत्कारते हैं तुझे

भूल जाते हैं तुम्हारा त्याग को

छोड़ जाते हैं तुझे तुम्हारे हाल पर

तू बन जाती है फिर से मूर्ति पाषाण की

जिसमें स्वयं के लिए न इच्छा है न चाहत।


तभी तो तू कहलाती है मूर्ति त्याग की।


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