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Shravani Balasaheb Sul

Abstract

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Shravani Balasaheb Sul

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स्त्री

स्त्री

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सूरज जब साथ छोड़ दे, चाँद की चमक में खुद को रिझा लेगी

ये धरती समझदार हैं, खुद को खुद ही समझा लेगी

बादलों के बहते आँसू, अपनी आँखों में समा लेगी

खुद के अश्कों के झरनों से, वसुंधरा का रूप सजा देगी

सह जाएगी काँटों की चुभन, तोहफे में फूलों की मखमल देगी

श्रेष्ठता का उसकी जोड़ नहीं, वह कीचड़ में भी कमल देगी

सूख भी जाए तो दिल में, पेड़ों की जड़े आबाद रखेगी

आँधी से गर उखड़ जाए जड़े, उसी की गोद में पनाह मिलेगी

धूप छाया या सावन का संदेसा, सदा चुनेगी आसमां का साया

तभी तो क्षितिज पे मेल अनोखा, प्रतीक प्रेम का हैं कहलाया

दिल के घाव सह लेगी मगर, रूह पे वार हो तो भूकंप लाएगी

अपने विनाशकारी स्वरूप से, आसमां में भी कंप लाएगी

पूजो तो स्वरूप देवी का, गर खंजर तो ये तलवार हैं

समझो महत्ता को इसकी, हर स्त्री धरती का अवतार है


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