स्त्री और कला
स्त्री और कला
बचपन से ही अपनी ओर खींचते रहे
उसे संगीत के सात स्वर
वो गाना चाहती थी
मगर तुमने खींच दी लक्ष्मण रेखा
वो बस दूर से ही सुनती रही
सा रे ग म प ध नि
आकर्षित कर लेती कत्थक की
तक धिन, तक धिन ,ता
थिरक उठते उसके पांव
पहनने को आतुर थी घुंघरू
मगर तुमने रोक दिया
अच्छे घर की स्त्रियों के गुण गिना
वो खेलना चाहती थी
अपने भाइयों की तरह खेल मुहल्ले में
शायद बन जाती कोई बड़ी खिलाड़ी
मगर तुम्हारे दोगलेपन ने
बिठा दिया उसे रसोई घर में
सीखने को नये -नये पकवान
वो लिखना चाहती थी श्रृंगार
उसके हृदय में रचा -बसा था प्रेम
तुम्हें नजर आई अश्लीलता
उसे थमा दी गई पर्ची
जिस पर लिखे हुये थे
स्त्री के लिए उपर्युक्त विषय
सुनो !
पितृसत्तात्मकता के ठेकेदारों
कला महज कला होती है
स्वत : ही उपजती है
मानव हृदय के कोमल पटल पर
काश! तुम समझ पाते
तुम्हारे इस कला के बंटवारे से
दफन हो चुकी हैं
न जाने कितनी गायिकायें
ना जाने कितनी नायिकायें
ना जाने कितनी लेखिकायें
स्त्रियों के मन की कब्रगाह में .....