सरहदें
सरहदें
लकीरे हैं दरमियाँ,
सरहदें कहलें सोच की,
मैं उधर आ नहीं सकता,
तुम इधर आ नहीं सकते,
जानता हूँ,
मुश्किल है बहुत,
वहाँ से देख पाना,
तस्वीर यहां की,
यहां से देख पाना,
नज़रिया तुम्हारा,
कि मेरा सही तुम्हारा गलत है,
कि तुम्हारा सही, मेरा गलत,
पर क्या अगर हमारे टुकड़े बदल जाते,
तो क्या हमारे सही गलत भी बदल जाते,
हमारी पहचान महज़ से,
हमारे मतलब महज़ से ?
क्या फ़िर तुम लड़ते उन चीज़ों के लिए,
जो आज मेरी हैं ?
और क्या मैं बचाता उन्हें,
जो आज तुम्हारे हैं ?
हाँ शायद, तब भी हम ऐसे ही लड़ते,
मानकर कि हम सब जान चुके हैं,
हाँ, तब भी ऐसा ही होता।
