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Kunda Shamkuwar

Abstract Romance

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Kunda Shamkuwar

Abstract Romance

सरगोशी

सरगोशी

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ये हवा न जाने कैसे बेख़ौफ़ होकर बहती रहती है...

एक आवेग से......

बेलगाम ....


और ये पेड़ है जो न जाने खामोशी से

कैसे खड़े रह लेते हैं......

सब कुछ जान कर खड़े रहते हैं....

आँगन में .....

और जंगल में.....


काश मैं भी इस हवा की तरह बहती जाऊँ....

बेख़ौफ़ होकर....

बिना किसी रोकटोक के....


लेकिन न जाने क्यों बाज़दफ़ा मैं

इन पेड़ों की तरह खड़ी रह जाती हूँ.....

ठिठक जाती हूँ......

खामोशी से....

जब सुनती हुँ सरगोशियाँ.....

मेरे मोहल्ले में रहने वाली उस औरत के बारें में..... 


प्रेम में सराबोर उस औरत के बारें में लोग जाने क्यों बातें करते रहते हैं...

उसे विशेषणों से नवाज़ते हैं... 

परकटी....

बेशर्म....

आज़ाद ख़याल....

और भी न जाने क्या क्या.....

इसलिए की वह एक शादीशुदा मर्द मे प्रेम ढूँढ रही थी..... 

यूँ कहे की वह उसके प्रेम में सराबोर थी....

प्रेम तो प्रेम होता है.....

बिल्कुल अंधा करनेवाला.....

वह क्या जाने जायज़ और नाज़ायज़ ?


लेकिन मैं फिर इन पेड़ों की तरह खड़ी रह जाती हूँ.....

ठिठकी सी.....

खामोश सी....

क्योंकि उन सरगोशियों में और विशेषणों में सिर्फ़ उस औरत का जिक्र होता है...

सरगोशियों में 'प्रेमी महोदय' का जिक्र ही नहीं होता है....

ना ही उसके लिए कोई विशेषण भी....

एक 'सुखी सम्पन्न' परिवार होने के बावजूद.....

वह प्रेम करता है....

उस दूसरी औरत से.....

मेरे मोहल्ले की उस औरत से.....


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