सर्दी की धूप
सर्दी की धूप
उलटते पलटते रैन के चारों पहर जल्दी से
सवेरे कुहासे की उबासी तोड़ के खिली सर्दी की धूप
जैसे तुम किसी रोज मुझसे मिलने को घर से
जल्दी निकला करती हो,
पिघलते पिघलते दिन भर फिर जा कर
शफ़क़ से लिपट गई सर्दी की धूप
जैसे तुम लपेट कर सुर्ख दुशाला डूबती साँझ
तका करती हो, सहलाते सहलाते
छनते-छनते हर शज़र की हरियल पत्तियों से
पच्छिम की ड्योड़ी पे जरा ठहर गई सर्दी की धूप
जैसे तुम बुझते अलावा की नरमी को
अंजुली में भरती हो,
फिसलते-फिसलते दोपहर की बरनी से खाली होकर भी
कुछ कुछ बाकी रह गई सर्दी की धूप
जैसे तुम जाते जाते मेरे चेहरे की उदासी अपनी एक
सरसरी निगाह से पढ़ती हो !