सपनों की पुकार
सपनों की पुकार
जिम्मेदारियों ने कुछ इस तरह हमें घेरा है
हर सपना हमसे दूरी बनाकर कहीं ठहरा है।
पहले तो दे जाती थीं अक्सर नींद में आवाज़
अब उन्हीं ख़्वाबों पर छाया अँधेरा गहरा है।
कभी कभी आ जाती है जहन में
अजीज ख़्वाबों की दबी दबी सी महक
बन्द पलकों को खोलना मुश्किल होता है
सुनाई देती है मीठे पिघलते सपनों की सिसक।
तेज दौड़ती, थकती, हांफती सी ये जिन्दगी
सपनों की बस्ती का रास्ता भूल चुकी हो जैसे
मन को सुकून दे जानी वाली वो कशिश भी
उदास आँखों की झिल्लियों में डूब चुकी हो जैसे।
बहुत ऊँची उड़ान के ख़्वाब तो नहीं सजाये थे
चाहते थे ना होने पर भी इस जहां में रहे अपनी पहचान
सबके दिलों पर छा जाने की नहीं थी तमन्ना हमारी
थी चाहत सबकी नज़रों में देखना अपना एक मुकाम।
अब तो सपनों की पुकार भी झकझोरती नहीं
लगता है हमारी पहुँच से जरा दूर और दूर जा चुकी है
बदहाल से खुद की परवाह से अनजान हम अब हैं
अभिलाषाओं की डोर थामने की ऊर्जा खो चुकी है।