सफलता से दूरी क्यों ?
सफलता से दूरी क्यों ?
भौतिकता की अंधी दौड़ में,
हम भागे चले जा रहे हैं पर हताश,
ज्यों मरुभूमि में मरीचिका से,
भ्रमित मृग नीर की करता तलाश।
होश आते ही हमने होश खोए,
अध-कचरे ज्ञान से शुरू प्रश्न सिलसिला,
जब छोटे थे तो बड़ों से था और,
बड़े हो जाने पर था वही छोटों से गिला।
भेदभाव के शिकार होने का रहा भ्रम सतत्,
जीवन के आदि से अंत रहा जारी,
दूजे की सूक्ष्म त्रुटि दिखी विस्तृत,
हमने निज भयंकर भूल भी तो थी न निहारी।
ली शपथ सहयोग जिस संग जोड़ कंधा,
पर अहम् के भाव वश भूमिका उसकी नकारी,
मिल के दो को होना ग्यारह था मगर,
आपसी तकरार में हो गई क्षीण सब शक्ति हमारी।
कर नहीं पाते हैं हम अर्जित
शक्ति अर्जन के समय में,
और दें नहीं पाते हम देने की बारी,
पालते दुर्भावनाएं मन में हैं
हम उस समय पर, होती है
जब शुभ सद्भाव पालन की बारी।
अगली बार नहीं त्रुटि होगी,
ऐसा ही सोच-सोच कर त्रुटियां
करते हमने सारी उम्र गुजारी,
उलझे ज्यादातर भ्रम के इस जाल में,
बचें वही जिन पर करते अनुकम्पा श्रीकृष्णमुरारी।
