सोलमेट
सोलमेट
तन्हा था रास्ता, अकेला था राही
दिल था जो मेरा ढूंढ़ता हमराही
उम्मीद भरी नजरों से करता था भेंट
क्या पता, कब, कहां मिल जाए सोलमेट।
मीठी मीठी बातों से ही करता था शुरुआत
लहजा था संभालता जब होती मुलाकात
गलती से भी कभी नहीं होता था लेट
क्या पता, कब , कहां मिल जाए सोलमेट।
स्त्री कर कपड़े अपने, जूते चमका लेता था
आंखो पे रंगीन सा कोई चश्मा लटका लेता था
नहाता था दोबारा फिर लेता गुलाब की महक लपेट
क्या पता, कब, कहां मिल जाए सोलमेट
क्या पता, कब, कहां मिल जाए सोलमेट।