सोलह श्रृंगार से सजी दुल्हन
सोलह श्रृंगार से सजी दुल्हन
लाल जोड़े में सजी लाडो
बाबुल की,
नैनों में सजाए अनेक स्वप्न हैं।
अधरों पर मुस्कान है
मन में सौ अरमान हैं।
पिया मिलन की आस लिए, चली ससुराल,
कर सोलह श्रृंगार।।
बालों में गजरा, आंखों में कजरा, सिंदूर भरी मांग
बिंदिया चमचम चमके।।
नाक में नथनी, होंठों पर लाली, कानों में झुमके,
गले में नौ लखा हार,
मंगल सूत्र सुहाग का साजे, मेहँदी रचे हाथ
कंगना खन-खन खनके।
बाजूबंद, अंगुठियां शोभे
पांवों में बिछिया, पायल
छम-छम छमके।।
सलमे, सितारे, गोटा सजी चूनर सुंदरता में
चार चांद लगाए।।
सोलह श्रृंगार से सजी दुल्हन
पहुंची द्वारे ससुराल,
सबके मन को भा गई है
खुशियों के पंख लगाए,
बीत गए दिन दस।
फिर आ गई मायके
प्रफुल्लित तन-मन।
हर्षाती मां मन ही मन।
अभी चार दिन ही बीते थे
आ गया बुलावा ससुराल का
गले लगा कर बेटी को
मां समझाती
बाहरी श्रृंगार तो बस
चार दिन का है बेटी
तुम गांठ बांध लो बात मेरी ।
बेटी, तुम प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, ममता का दीपक बनाओ
त्याग, धीरज, संयम की
बाती से सजाओ।
क्षमा, दया, करुणा का घृत, डालो दीपक में
मन के पावन भावों से
दीप जलाओ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह
मत्सर रुपी झंझावातों से
कभी ना बुझने देना दीपक ।
समर्पण, सहनशीलता का लगाकर पर्दा चहूं ओर
रक्षा करती रहना बेटी हरदम।
इन सोलह श्रृंगारों को
धारण कर, जाओ बेटी
ससुराल।
"स्वर्ग" घर में आ बसा है
कहोगी तुम मुझे बारंबार।
असली श्रृंगार यही है बेटी ,अक्षय सुख पाने का
ससुराल में नाम कमाने का
सबके मन में बस जाने का
सदा के लिए पिया के मन-मंदिर में, गहरी पैठ बनाने का।।