सोचा है कभी?
सोचा है कभी?
महक फूलों की जब
तुम्हें न मिले
महबूबा को आग़ोश में
लेने के बावजूद
उसके तन की ख़ुशबू
आत्मसात न हो
गली से जो निकले बाहर
तो बाजी के हाथों की बिरयानी
हाय! मसालों की गंध न मिले।
न घूरे पर कचरे की दुर्गंध
न इत्र, न फूल, न बदन
सब एक समान...
कभी सोचा है कैसा लगता होगा?
अगर आप सोच पा रहे हैं न
तो ध्यान रखिएगा
ऐसी ही हो जाएगी दुनिया
जब इसमें रहने वाले सभी पंथ
धर्म, मज़हब, जातियां एक हो जाएंगी।
इनकी महक ख़त्म हो जाएगी
महक को खत्म न होने दो
उसे जियो
उसके ही रूप को आनंद से
अपनाओ।
जीवन यही है अनेक रंग
गंध
पंथ
मज़हब
लोग
देश...
समय है अभी चुका नहीं
सोच लो...