संदूकची
संदूकची
सहेज कर रखी हैं
कुछ यादें
बरसों पुरानी
मन की एक
संदूकची के भीतर
आज खोला जो उसे
जमी धूल
हटाने को
गुम हो गया मन,
पहुँच गया
वहीं कहीं बरसों पुराने
पलों को जीने
झकझोर कर जगाया
जब किसी ने मुझे
तो लौट आई
वर्तमान में
और रख दिया
संदूकची को समेटकर
जल्दबाजी में सिर्फ
सांकल लगाई
छूट गया ताला लगाना
और
वो बेहिसाब यादें
हल्की सी उठा-पटक से
वक्त बेवक्त
निकल आती हैं बाहर
मन में तरतीब से रखी
उस संदूकची से
