समय की धार
समय की धार
मुट्ठी से रेत जब फिसलने लगे
मोती से ख्वाब जब बिखरने लगे
छोटी सी जिंदगी में रिश्तो का कोहरा घना है
फिर भी समय की रेत पर हमें रुकना मना है
हमसफर मेरे तब बन जाना
जब कोई कतरा छू कर मुझ से गुजर जाए
मैं तुम हम होकर उस खतरे से लड़ जाएँ
बंद लम्हों के झरोखों से इल्तज़ा कर जाएँ
चलते चलते जो कदम रेत पर छूट जाएंगे
उन निशानों पे हम तेरे पीछे-पीछे चले आएंँगे
उठते लहरों की समंदर की रेत सारी काली हुई
लिखते लिखते मेरे शब्दों की कलम खाली हुई।
वक्त की इस बहती फिसलन को
चाह कर भी ना सँजो पाऊँ
दरिया-ए- लम्हों में मैं हिज्र बन सरकता जाऊँ
इन सवालों के कुंभ अँधेरी कोठरी में
रोशनी मैं कहांँ से लाऊंँ
ना कुछ बोलूँना कुछ पूछूँ
समय के दस्तावेजों को बस यूंँ ही लिखता जाऊँ।