स्मृतियों के झरोखे से
स्मृतियों के झरोखे से
आज फिर स्मृतियों के द्वार झिलमिलाए,
शीतल हवा के झोंके सा मेरा मन
बचपन की गलियों में खो गया,
और बहुत कुछ याद आ गया।
ये यादें भी बड़ी अजीबोगरीब होती हैंं ,
कभी रजनीगन्धा के फूलों सी महकती हैं
तो कभी कीकर केे काँटों सी चुभती हैं,
पर सच यही है कि यादें बेशकीमती होती हैं ।
गुलेेेल की रबर सा खिंचता मेरा मन,
आम और जामुन में अटक जाता है।
कच्ची केेरियों का सरस खट्टापन,
आज भी आँखों में उतर आता है ।।
मन दौड़ता रंग बिरंगी तितलियों के पीछे,
हरी भरी अमराई में झूूूूमते पेेड़ों केे नीचे।
साइकिल की घंटी बजाते आई बर्फ की पेेेेटी,
और कोई न दिलाये तो सीधे जमीन पर जा लेटी।।
काग़जी जहाजों संंग मंसूबों की ऊँची उड़ान,
कभी कंचे तो कभी पतंगों की कटान।
वीसीआर पर फिल्में और टेपरिकार्डर के गाने,
जिन पर थिरक उठते थे कदम जाने अनजाने ।।
यूँ ही यादों के समंदर में गोते लगाती हूँ,
उन खिले अधखिले सपनों को सँँजोती हूँ ।
रोकती हूँ अल्हड़ मलंग से उछलते कदम,
और सोचती हूँ काश फिर लौट आता दो घड़ी को वो बचपन ।।
जानती हूँ जागते हुए सपनों की ताबीर नहीं होती,
इसीलिये बड़े हौले से मुस्कुराती हूँँ,
तमाम यादों को पीछे छोड़ जाती हूँ
और अपने बच्चों की अठखेलियों में
फिर अपना बचपन टटोलती हूँ ।।