स्मृति ज्योति
स्मृति ज्योति
था अटल वह,
मेरे विश्वास सा,
अनंत तक के,
साथ का वायदा था।
ईंट दर ईंट जब-जब उतरती गई,
स्मृति -ज्योति तुम्हारी,
तब-तब और निखरती गई,
कुरेदने लगती हर याद तुम्हारी,
हवा भी कुछ कह सी जाती।
हर यादे-कतरा,
नश्तर सा चुभ,
तुम्हारे जाने के,
व्योम के अहसास का,
इक टीस दे जाता।
किरकिरी भी तो,
न पड़ी थी आँखों में,
फिर ये झड़ी क्यों आ गई,
सावन की रुक-रुक कर ?
देख उतारते,
उस बिन छत की दीवारों कोस,
जो घट कर रह,
गया था उस मकान से,
जिसे कभी तुमने मुहब्बत से,
बनवाया था मेरे लिए।
कहने को तो नया होगा,
ऊँचा भी होगा नया गगन चुम्बी,
पर न हो सकेगा कभी भी,
तुम्हारे इस घर का पर्याय।
पर,
इसके हर ज़र्रे में चुनवाया है मैंने,
तुम्हारी स्मृतियों के ज्योति-पुंज,
जो देदीप्यमान हो-
भर देगा तुम्हारी अनुपथिति का व्योम।
