सलाम
सलाम
दवात बनॉं लूँ दिल को मैं
और अरमानों से ये क़लाम लिख़ूँ
सोचता हूँ कागज़ पर पैग़ाम लिख़ूँ
जो लिख़ूँ वो बस तेरे ही नाम लिख़ूँ।
भूले से भी ग़र तेरा ज़िक़्र जो हों
धड़कन दिवानी हो उठती है
दिल को भी तो कहीं चैन नहीं
सोचूँ के दिल को थाम लिख़ूँ।
लिख़ने की मैं जो सोचूँ भी
तुझे क्या लिख़ूँ तू ही बतला दे
मंदिर की मूरत कहूँ तुझे या,
मैख़ानें का कोई जाम लिख़ूँ।
मुझे लोकलाज की फिक़्र नहीं
मैं जो लिख़ूँ अब सरेआम लिख़ूँ
मेरा ख़ुदा भी मुझे कुछ हैरान दिखे
के मैं इबादत में तुझे सलाम लिख़ूँ !