STORYMIRROR

Bhavna Thaker

Abstract

4  

Bhavna Thaker

Abstract

सिसकी

सिसकी

1 min
608

तुम्हारी नज़र अंदाज़ी के पैरों तले दब गई है देखो मेरे धड़कन की धुन 

सुनाई देती है क्या सिसकी तुम्हें मेरे कुचले गए अरमानों की। 


हर रंग उतर गया इश्क की मेहंदी का कभी रचाया था तुमने मेरे उर के आंगन पर,

अब धवल सफ़हे सा करते सवाल मेरे स्पंदन आवाज़ दे रहे हैं ।


नश्तर सी चुभती है तुम्हारे मौन की कील, प्रतिसाद की आस में तड़पते सुराही अश्कों की छलक रही है,

जिन आँखों से मैं देखती थी हंमेशा तुम्हें उन आँखों से देखती है कोई राधा अपने कान्हा को।


मेरी आँखों के आगे अब तम का कानन छंटा है, मेरी जीस्त के उजाले

उसी पगडंडी पर सरक गए जिस दिशा में तुम्हारे लौटते कदमों के निशान पड़े हैं ।


क्या कोई इतना खुदगर्ज़ भी होता है जहाँ बैठकर सालों बिताए उस जगह की याद भी न आए,

सुना है किसी ओर का आंगन मेरे हिस्से की रोशनी से झिलमिलाता हंस रहा है।


इबादत में उठे हाथ अब एक ही दुआ मांगे उस आंगन की रोशनी सदा कायम रहे।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract