शून्य
शून्य
एक शून्य है पसरा जीवन में
भंग हुआ मोह रिश्ते नाते मित्रों का
लगे बेगाने जो थे कभी बेहद अपने
छला मेरे ही विश्वास ने मुझे
किया बेहद तन्हा।
सभी हो गये दूर
प्रेम विश्वास हंसी खुशी
ताने उलाहने भी नहीं रहे अब
रह गया एक शून्य
और उसमें मैं तन्हा।
कितनी ही कोशिश की इससे बाहर आने की
हर बार हर तरफ उसकी दीवारों पर सर पटक
फिर चली आई उसके केंद्र में
या कि वही बन गया मेरा केंद्र बिंदु
एक शून्य
एक बार फिर समेटा खुद को
अब उस शून्य में
केवल मैं थी
मैं सिर्फ मैं
कभी खुद के साथ ही कहां रह पाई
जिंदगी यूं ही गुजर गई
आज इस शून्य का जाना महत्व
इसमें अब सिर्फ मैं हूँ
खुद के लिए खुद के साथ।
