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Kavita Verma

Abstract

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Kavita Verma

Abstract

शून्य

शून्य

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201


एक शून्य है पसरा जीवन में 

भंग हुआ मोह रिश्ते नाते मित्रों का 

लगे बेगाने जो थे कभी बेहद अपने 

छला मेरे ही विश्वास ने मुझे 

किया बेहद तन्हा। 


सभी हो गये दूर 

प्रेम विश्वास हंसी खुशी 

ताने उलाहने भी नहीं रहे अब 

रह गया एक शून्य 

और उसमें मैं तन्हा। 


कितनी ही कोशिश की इससे बाहर आने की 

हर बार हर तरफ उसकी दीवारों पर सर पटक 

फिर चली आई उसके केंद्र में 

या कि वही बन गया मेरा केंद्र बिंदु 

एक शून्य 


एक बार फिर समेटा खुद को 

अब उस शून्य में 

केवल मैं थी 

मैं सिर्फ मैं 

कभी खुद के साथ ही कहां रह पाई 

जिंदगी यूं ही गुजर गई 

आज इस शून्य का जाना महत्व 

इसमें अब सिर्फ मैं हूँ 

खुद के लिए खुद के साथ। 



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