श्रमिक पीड़ा
श्रमिक पीड़ा
झूलता तूफान भीतर
मार धक्का रेलता है
दर्द की भर के कड़ाही
काल हर दुख झेलता है।
मौन की थाली सजाकर
ज्योति आत्मा की जगाऊँ
क्रोध खरपतवार कुचलूँ
प्रेम की फसलें उगाऊँ
कर कमाने को हमेशा
रोज पापड़ बेलता है।
इस समय की भूल सीढ़ी
नेत्र सूखे अश्रु मारे
मृत विधा की मापनी है
शिल्प ने भी पग पसारे
दाँत जैसे हल पुराना
आज खेती जलता है।
शोर करती तितलियाँ भी
पुष्प बगिया है सिकुड़ती
भंवरों के चीख क्रंदन
भूख से माथा जकड़ती
धूल का नाचे बवंडर
हिय मरुस्थल खेलता है।।
