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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -७६ ; महाराजा पृथु की यज्ञशाला में श्री विष्णु भगवान

श्रीमद्भागवत -७६ ; महाराजा पृथु की यज्ञशाला में श्री विष्णु भगवान

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मैत्रेय जी कहें विदुर जी से कि 

पृथु के निन्यानवें यज्ञों से 

संतोष हुआ भगवान विष्णु को 

और वो बहुत प्रस्सन हुए।


साथ में इंद्र के उपस्थित हुए 

कहा, इंद्र ने जो विघ्न डाला है 

सौ यज्ञ पूरे न हो सके 

तुमसे ये क्षमा चाहता है।


जो श्रेष्ठ मानव होते हैं 

सद्बुद्धि से संपन्न हैं होते 

साधु स्वभान उनका होता है 

दूसरों से द्रोह न करते।


ज्ञानवान पुरुष होते जो 

पुतला मानें शरीर को हैं वो 

अविद्या, वासना और कर्मों का 

न आसक्त कभी हों उसमें वो।


मुझमें ही अनुराग रखते हैं 

वो वशीभूत नहीं होते 

हर्ष, शोकादि विचारों से 

सम्पति या विपत्ति मिलने से।


इसलिए सुख और दुःख दोनों को 

समझो तुम एक जैसा ही 

इन्द्रिओं को तुम जीत कर 

रक्षा करो सम्पूर्ण लोकों की।


प्रजापालन में जो लगा रहे 

उसमें ही कल्याण राजा का 

परलोक में राजा को है मिलता 

छठा भाग प्रजा के पुण्य का।


इसके विपरीत कोई राजा जो 

रक्षा न करे प्रजा की 

वसूलता रहे कर वो उनसे 

पुण्य उसका छीन ले प्रजा ही।


बदले में प्रजा के पाप का 

भागीदार है होना पड़ता 

धर्म से पृथ्वी का पालन करो 

दर्शन पाओगे सनकादि का।


मैत्रेय जी कहें कि हे विदुर जी 

श्री हरि के ऐसा कहने पर 

आज्ञा शिरोधार्य की उनकी 

पृथु ने सब कुछ उन्हें जानकर।


अपने कर्मों से लज्जित होकर 

इंद्र भी चरणों में गिरने लगा 

राजा ने उसे प्रेमपूर्वक 

ह्रदय से अपने लगा लिया।


फिर राजा पृथु ने हरि का

पूजन किया और चरण पकड़ लिए 

प्रभु ने जब वर मांगने को कहा 

इस प्रकार प्रभु से कहने लगे।


हे प्रभु, आप समर्थ हैं 

वर देने को ब्रह्मादि को भी 

तुच्छ विषयों को मांगूं न मैं 

मोक्ष की भी मेरी इच्छा नहीं |


क्योंकि मोक्ष जब मिल जाता है 

सत्पुरुषों के मुख से सुनने का 

आपकी लीलाएं और कथा 

पुरुष को तब ये सुख नहीं मिलता।


इसलिए प्रार्थना है मेरी 

हजार कान दे दीजिये आप मुझे 

जिससे कि आपके लीलगुणों को 

सदा सुनता रहूँ मैं इनसे।


ये सारी लीलाएं आपकी 

तत्वज्ञान करा देती हैं 

इसलिए किसी वर की हमें 

कोई आवश्यकता ही नहीं है।


अत्यंत उत्सुकता से आपकी 

सेवा ही करना चाहता हूँ 

आपके चरणकमलों का चिंतन 

आपकी अनन्य भक्ति चाहता हूँ।


मैत्रेय जी कहें इस तरह पृथु ने 

स्तुति करी थी जब भगवान की 

तब भगवन ने कहा, हे राजन 

तुम्हारी होगी मुझ हरि में भक्ति।


बड़े ही भाग्य की बात है 

चित तुम्हारा मुझ में लगा है 

अब मेरी आज्ञा का पालन कर 

प्रजा का पालन तुम्हे करना है।


भगवान का पूजन किया पृथु ने 

हरि तब अपने धाम चले गए 

ऋषि मुनि अपने आश्रम को 

राजधानी को पृथु चले गए।



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