श्रीमद्भागवत -५०;प्रकृति पुरुष के विवेक से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन
श्रीमद्भागवत -५०;प्रकृति पुरुष के विवेक से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन


कपिल जी कहें कि हे माता जी
आत्मा निर्गुण, निर्विकार है
शरीर में स्थित रहने पर भी उसका
सुख दुःख आदि से ना सरोकार है।
किन्तु जब वो प्राकृत गुणों से
सम्बंध अपना स्थापित कर लेता
तब अंधकार से मोहित होकर
‘ मैं करता हूँ ‘ ये मानने लगता।
उसी अभिमान के कारण ही
देह के किए हुए पुण्य - पाप से
अपनी स्वाधीनता खो देता वो
घूमता रहता वो योनियों में।
अविद्यावश विषयों का चिंतन करने से
संसार चक्र से ना निवृत हो
बुद्धिमान को ये उचित है
भक्तियोग से वश में करे चित को।
योगसाधना द्वारा चित को
एकाग्र कर मेरी कथा श्रवण करे
सब प्रणीयों से समभाव रखे वो
किसी से वो कभी वैर ना करे।
ब्रह्मचर्य व्रत आदि धर्म से
ऐसी स्थिति प्राप्त वो करे
प्रारब्ध के अनुसार जो भी मिले
उस
ी में संतुष्ट वो रहे।
परमात्मा के सिवा और किसी को
या वस्तु को भी नहीं देखता
परमात्मा का साक्षात कर
ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता।
देवहूति पूछे कि ही प्रभु
पुरुष और प्रकृति ये दोनो
एक दूसरे के आश्रेय में रहते
फिर प्रकृति कैसे छोड़े पुरुष को।
पुरुष को यह कर्म बंधन सब
प्राप्त हुए हैं इसी प्रकृति से
उसे कैसे परमपद प्राप्त हो
इस प्रकृति के गुणों के रहते।
भगवान कहें, निष्काम भाव से
धर्म पालन वो करे जाए
अंतकरण शुद्ध हो जाता
चित भी एकाग्र हो जाए।
अविद्या उसकी क्षीण हो जाती
उसे तत्वज्ञान हो जाए
मेरे में मन लग जाता उसका
प्रकृति कुछ बिगाड़ ना पाए।
फिर वो पुरुष भक्ति में लीन हो
मेरा वो परमपद पाता
जहां पहुँचने के बाद फिर
वो लौटकर कभी ना आता।