श्रीमद्भागवत - ३२९; भगवान के अंग, उपांग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्
श्रीमद्भागवत - ३२९; भगवान के अंग, उपांग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्


श्रीमद्भागवत - ३२९; भगवान के अंग, उपांग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्य गणों का वर्णन
शौनक जी ने कहा, सूत जी
परमभक्त आप भगवान के
आप समर्थ, हम पूछना चाहते
एक विशेष प्रश्न शास्त्र के बारे में ।
यथावत ज्ञान प्राप्त करना चाहते
क्रियायोग का हम लोग आपसे
क्योंकि आचरण करने से उसका
अमरतव प्राप्त कर लेते ।
अतः आप हमें ये बतलाइये
कि तंत्रों की विधि जानने वाले
लक्ष्मी पति श्री भगवान की
जब आराधना करते हैं वे ।
चरणादि अंग, गरुड़आदि उपांग
सुदर्शनादी आयुध, कोस्तुभादी आभूषणों की
किन किन। तत्वों से वे
कल्पना करते हैं उनकी ।
सूत जी कहते हैं, शौनक जी
विष्णु भगवान की जिन विभूतियों का
ब्रह्मा, आचार्यों, ने, वेदों ने
और तंत्रग्रंथों ने वर्णन किया ।
मैं आपको अब वही सुनाता
आप सब ध्यान से सुनो
भगवान के विराट रूप में
दिखाई देती ये त्रिलोकी जो ।
वह रूप बना हुआ है
वह बना सोलह विकारों से
जो ग्यारह इंद्रियाँ और पंचभूत हैं
भगवान का पुरुष रूप ये ।
पृथ्वी इनके चरण, स्वर्ग मस्तक है
अंतरिक्ष नाभि और सूर्य नेत्र हैं
वायु नासिका। दिशायें कान हैं
प्रजापति लिंग, मृत्यु गुदा है ।
लॉकपालगन भुजाएँ, चंद्रमा मन है
यमराज भोहें, लज्जा होंठ अपर का
चंद्रमा की चाँदनी दंतावली उनकी
लोभ हैं होंठ नीचे का ।
भ्रम मुस्कान है वृक्ष रोम हैं
बादल बाल, सिर पर उगे हुए
स्वयं भगवान तो अजन्मा हैं
और कौस्तुभमणि के बहाने वे ।
आत्म ज्योति को धारण करते
और उसकी सर्वव्यापिक प्रभा को वे
वक्षस्थल पर धारण करते
श्री वत्स के रूप में ।
सत्व, रज आदि गुणों को
माया की वनमाला के रूप में
छन्द को पीताम्बर रूप और
अ + उ + म को यज्ञोपवीत के रूप में ।
सांख्य को मक्रकृत कुंडल के रूप और
ब्रह्मलोक को मुकुट रूप में धारण करें
मूलप्रकृति ही उनकी शेष शय्या है
विराजमान रहते जिसपर वे ।
धर्म ज्ञानादियुक्त सत्वगुण ही
वर्णित नाभिकमल के रूप में उनके
शक्तियों से युक्त प्राणतत्वरूप
कोमोद की गदा के रूप में ।
जड़तत्व रूप पांचजन्य शंख
तेजतत्वरूप सुदर्शन धारण करें वो
आकाशस्वरूप खड्ग है उनका
तमोमय अज्ञानरूप ढाल जो ।
कालस्वरूप शारंग धनुष और
कर्म का ही तरकश धारण किए
इंद्रियों को ही कहा गया है
भगवान के वाणों के रूप में ।
क्रियाशक्ति युक्त मन ही रथ है
तन्मात्राएँ बाहरी भाग हैं रथ का
वरदान वर-अभय आदि की मुद्राओं ं में प्रकट हों
अभयदान आदि के रूप में क्रियाशीलता ।
सूर्यमंडल अथवा अग्निमंडल भी
स्थान है भगवान की पूजा का
अंतःकरण की शुद्धि ही मंत्रदीक्षा है
पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा ।
ब्राह्मणों, समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश
लक्ष्मी, ज्ञान, वैराग्य, छ पदार्थ ये
इनका नाम ही नीलकमल, जिसे
भगवान करकमलों में धारण करते ।
धर्म, यश को चंवर, व्यजन के रूप में
वैकुंठ को छत्ररूप में धारण करें
वेद गरुड़ हैं, आत्म यश लक्ष्मी
कभी ना बिछड़ने वाली जो उनसे ।
विश्ववितरुत , विश्वकसेन , पंचरात्रि आदि
आगमरूप हैं भगवान के पार्षदों में
अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों को
नंद, सुनन्द आदि आठ द्वारपाल कहते ।
वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध
इन चार मूर्तियों के रूप में
स्वयं भगवान ही सर्वस्थित हैं
चतुर्व्यूह के रूप में कहा जाता इन्हें ।
जागृत अवस्था में अभिमानी विश्व बनकर वो
शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करें
स्वप्नावस्था में अभिमानी तैजस बनकर
वो ही हैं देखते रहते ।
बाह्य विषयों के बिना ही
मन ही मन अनेक विषयों को
और जैसे देखते वैसे ही
उन्हें ग्रहण भी करते वे ।
अभिमानी प्रज्ञ बन सुषुप्ति अवस्था के
वो ही विषय और मन के संस्कारों से
युक्त अज्ञान में ढक जाते हैं और
सबके साक्षी तुरीय रहकर वे ।
समस्त ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं
और इस प्रकार युक्त हो
अंग, उपांग, आयुध, आभूषणों से
भगवान हरि ही फिर प्रकट हों ।
वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध
इन चार मूर्तियों के रूप में
और क्रमशः विश्व, तेजस,०प्राज्ञ, तुरीय पुरुष
इन सब रूप में प्रकाशित होते वे ।
शौनक़ जी, सर्वस्व भगवान वही
मूल कारण हैं वेदों के
वे स्वयंप्रकाश भी हैं और
अपनी महिमा से परिपूर्ण वे ।
ब्रह्म आदि रूप, नामों से
विश्व की सृष्टि, स्थिति, संहार करें
उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता
इन सब कर्मों और नामों से ।
अपने भक्तों को प्राप्त ह्योते
आत्मस्वरूप से ही वे तो
अवतार ग्रहण कर यदुवंश में
भस्म किया पृथ्वी के द्रोही भूपालों को ।
सदा एकरस रहता प्राक्रम आपका
व्रज के गोप, नारदादी प्रेमी
निरंतर आपके यश का गान करें
लीलाओं का श्रवण करने से ही ।
जीव का मंगल हो जाता
सेवक हैं हम सब आपके
आप हम सब पर कृपा करें
और हमारी रक्षा कीजिए ।
शौनक जी ने कहा, सूत जी
शुकदेव जी ने ये कहा था
कि ऋषि, गंधर्व, नाग ,अप्सरा
यक्ष, राक्षस और देवता ।
इन सबका एक सौरगण होता है
और ये सातों प्रत्येक महीने बदलते
अपने स्वामी द्वादश आदित्यों के साथ रहकर
ये बारह काम क्या करते ।
और उनके अन्तर्गत व्यक्ति जो
नाम क्या हैं उन सबके
sury के रूप में श्री भगवान ही हैं
अब आप उनके विभाग कहिए ।
सूत जी कहें, भगवान विष्णु ही
आत्मा हैं समस्त प्राणियों के
प्राकृत सूर्यमण्डल का निर्माण हुआ है
उनके स्वरूप के अज्ञान से ।
वही लोकों में भ्रमण किया करता
अन्तर्यामी रूप में हरि ही सूर्य बने हुए
वे ही समस्त वैदिक क्रियाओं की मूर्ति हैं
और वे ही द्वारा माया के ।
काल, देश, यज्ञादि क्रिया
करता, सत्रुवा आदि कारण से
और यागादी कर्म,वेदमन्त , शाक्लय आदि द्रव्य
और फलरूप में नौ प्रकार के ।
कालरूप धारी सूर्य लोकों का
व्यवहार ठीक ठीक चलाने के लिए
भिन्न भिन्न गणों के साथ चक्कर लगाते
चेतादी बारह महीनों में अपने ।
शौनक जी, धाता नामक सूर्य और
हेती राक्षस, अप्सरा कुत्स्थली
रथकृत यक्ष,गंधर्व तुंबरू
पुल सत्य ऋषि, नाग वासुकि ।
ये सब संपन्न करते हैं
अपना अपना कार्य चेत्र में
वैशाख मास के कार्य निर्वाहक
अब मैं बतलाता हूँ तुम्हें ।
अर्यमा सूर्य ,पुलह ऋषि
आयोजा यक्ष,पूजिक्स्थली अप्सरा जो
प्रहेती राक्षस, नारद गंधर्व और
कच्छ नीर सर्प , ये सभी वो ।
मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि
पौरुषेय राक्षस,तक्षक सर्प
मेनका अप्सरा, हाहा गंधर्व
रथस्वल यक्ष हैं ज्येष्ठ के ।
अषाढ़ में वरुण नाम के सूर्य
वशिष्ठ ऋषि, अप्सरा रम्भा साथ में
सहजन्य यक्ष,हूहू गंधर्व
शुक्र नाग, चित्र स्वन राक्षस ये ।
अपने अपने कर्म का निर्वाह करें
और श्रावण मास है जो
इंद्र नाम है सूर्य का
और उनके साथ में हों ।
विश्ववसु गंधर्व, यक्ष श्रोता
एलापत्र नाग, ऋषि अंगिरा
प्रमलोचा अप्सरा, वर्य राक्षस सभी
संपादन करते कार्य का ।
ऐसे ही विभिन्न विभिन्न मास में
विभिन्न विभिन्न अप्सरा, गंधर्व हों
और यक्ष, सूर्य, राक्षस, ऋषि आदि
सम्पादन करें अपने कर्म का वो ।
शौनक जी, विभूतियाँ हैं
ये सब सूर्य भगवान की
इन छ गणों के साथ में रह महीनों
सर्वत्र विचरें सूर्य देव जी ।
इस लोक और परलोक में
विवेक बुद्धि का विस्तार हैं करते
सूर्य भगवान के गणों में ऋषि लोग
सूर्य की स्तुति है करते रहते ।
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के
सूर्य संबंधी मन्त्रों से स्तुति करते
गंधर्व उनके सुयश का
गान सदा ही करते रहते ।
अप्सराएँ चलतीं नृत्य करती हुई
नाग रथ को रस्सी की तरह कसते
यक्ष साज सजाते हैं और
राक्षस धकेलते पीछे से ।
इसके सिवा बालखिल्य वंश के
साठ हज़ार ब्रह्मऋषि सूर्य की और को
मुंह करके और सदा ही
स्तुति करते चलते रहें वो ।
इस प्रकार अनादि, अनंत, अजन्मा
श्री हरि ही कल्प कल्प में
अपने स्वरूप का विभाग करके
लोकों का पालन, पोषण करते ।