श्रीमद्भागवत -२९७ः लोकिक और पारलोकिक भोगों की असारता का निरूपण
श्रीमद्भागवत -२९७ः लोकिक और पारलोकिक भोगों की असारता का निरूपण
भगवान श्री कृष्ण कहें, “ हे उद्धव
साधक को चाहिए कि मेरी शरण में
रहकर मेरे द्वारा उपदिष्ट
धर्मों का वो पालन करता रहे ।
जहां तक विरोध न हो उनसे वहाँ तक
वर्ण, आश्रम, कुल के अनुसार ही
निष्काम भाव से अनुशठान करे
उनसे जुड़े सदाचार का भी ।
पुरुष जो मेरी शरण में है
विषयों को छोड़कर उसे
अंतरमुख करने वाले निष्काम और
नित्य कार्य भी करने चाहिएँ ।
कर्म जो सकाम ना हों अथवा
जो बहिर्मुख बनाने वाले
उन कर्मों का बिल्कुल ही
त्याग कर देना चाहिए उसे ।
आत्म ज्ञान की उत्कट इच्छा
जब जाग उठे मन में उसके
कर्म सम्बन्धी विधि विघ्नों का भी तब
आदर नही करना चाहिए उसे ।
अहिंसा आदि धर्मों का तो
आदरपूर्वक सेवन करना चाहिए
परंतु शोच आदि नियमों का पालन करे
जो आत्मज्ञान के विरोधी ना हों वे ।
मेरा ही स्वरूप समझकर
सेवा करे अपने गुरु की
शिष्य को अभिमान ना करना चाहिए
बुरा ना सोचे किसी का भी ।
कहीं भी ममता ना हो उसकी
गुरु चरणों में दृढ़ अनुराग हो
परमार्थ सम्बन्धी ज्ञान प्राप्ति की
इच्छा बनाए रखे सदा वो ।
दोष निकाले ना किसी के गुणों में
और बात ना करे व्यर्थ की
शरीर अनित्य, अनेक और जड़ है
आत्मा नित्य, एक, चेतन सोचे यही ।
इस प्रकार देह की अपेक्षा
महान विलक्षणता है आत्मा में
अत्येव ये आत्मा अपना
सर्वथा भिन्न है ये देह से ।
लकड़ी से आग प्रज्वल्लित होती जब
तब लम्बाई, चौड़ाई अनेकता लकड़ी की
और उत्पति, विनाश उसका
सभी गुण ग्रहण कर लेती ।
परंतु सच पूछो तो उन गुणों से
आग का सम्बंध ना कोई
आत्मा युक्त जान पड़े शरीर से
उसके गुणों से रहित होने पर भी ।
अज्ञान ही मूल कारण है
जनम मृत्यु रूप संसार का
इच्छा करनी चाहिए जानने की
आत्मा को, वास्तविक स्वरूप जो अपना ।
अपने आप में ही स्थित आत्मा ये
और कोई आधार नही इसका
विद्यारूप अग्नि की उत्पत्ति के लिए
आचार्य, शिष्य ये दो अरनियाँ ।
नीचे ऊपर की अरनियाँ वे
मंथन काष्ठ उपदेश उनकी
ज्ञान अग्नि प्रज्वल्लित होती इसमें जो
वह विलक्षण सुख है देती ।
बुद्धिमान शिष्य इस यज्ञ से
सदगुरु द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करे
गुणों से बनी विषयों की
माया को भस्म वो कर दे ।
तत्पश्चात् वो गुण भी भस्म हों
यह संसार बना हुआ जिनसे
सबके भस्म हो जाने पर फिर
आत्मा के सिवा कुछ शेष ना रहे ।
तब वह ज्ञानअग्नि भी अपने
वास्तविक स्वरूप में शांत हो जाती
जैसे समिधा ना होने पर
आग बुझ जाती स्वयं ही ।
सब अनित्य , समस्त विपतियों से
मुक्ति मिलती आत्मज्ञान से
अभिमान व्यर्थ जो सुख पाना चाहते
अपनी बुद्धि और कर्म से ।
जब मृत्यु सिर पर नाच रही उनके
ऐसी कौन सी तब भोग सामग्री
या भोग वासना है जो
कर सकती उन को है सुखी ।
फाँसी पर लटकाने के लिए मनुष्य को
वध स्थान पर ले जाते हुए
क्या फूल, चंदन, स्त्री आदि
पदार्थ क्या संतुष्ट कर सकते ।
पारलोकिक सुख भी दोषयुक्त हैं
लोकिक सुखों के समान ही
क्योंकि बराबरी वालों में
दौड़ चलती है वहाँ भी ।
अधिक सुख भोगने वालों के प्रति
असूया होती है वहाँ
दोष निकालें उनके गुणों में
छोटों से होती है घृणा ।
प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने से
नष्ट हों वहाँ के सुख भी
कामना पूर्ण होने पर भी वहाँ
विघ्नों की संभावना बनी रहती ।
यजमान,ऋत्विज, कर्म आदि की त्रुटियों से
स्वर्ग प्राप्त होते होते रह जाता
यज्ञ, करने वाला पुरुष यज्ञों के द्वारा
देवताओं की करके आराधना ।
स्वर्ग में जाता है और वहाँ
देवताओं समान ही भोग भोगता
दिव्य विमान जो मिल जाता उसे
ले जाता वहीं, जहां जाना चाहता ।
गंधर्व उसका गान करते हैं
सुर सुंदरियों से विहार करे वो
अप्सराओं से क्रीड़ाऐँ करते करते
इतना बेसुध हो जाता वो ।
कि उसे इस बात का पता भी ना चले
कि समाप्त हो गए पुण्य मेरे
और धकेल दिया जाऊँगा
उसके बाद मैं यहाँ से ।
पुण्य शेष रहते जब तक
चैन की बंसी बजाए स्वर्ग में
परंतु पुण्य क्षीण होते ही
नीचे गिरना पड़ता है उसे ।
अधर्म परायण हो जाता जो कोई
संगत में पड़कर दुष्टों की
लम्पट होता, प्रणीयों को सताता
मनमानी करने लगे जो अपनी ।
पशुओं से भी गया बीता हो जाए
अवश्य वो गिरता नरक में
स्वार्थ, परमार्थ से रहित अज्ञान और
अंधकार में भटकना पड़ता उसे ।
सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म
हैं जो उनका फल है दुःख ही
शरीर की ममता में ही लगा रहे जो
जन्म मृत्यु की उसे प्राप्ति होती ।
क्या सुख की प्राप्ति हो सकती
मृत्युघर्मा जीव को ऐसे
लोकपालों की आयु भी बस एक कलप
वो भी भयभीत रहते हैं मुझसे ।
सत्व, रज और तम ये तीनों
गुण इंद्रियों को प्रेरित करते
उनके कर्मों में, और इंद्रियाँ
कर्म करतीं इस प्रेरणा से ।
जीव अज्ञानवश इन गुणों और
इंद्रियों को स्वरूप मान बैठे अपना
फल सुख, दुःख भोगने लगता
उनके किए हुए कर्मों का ।
जबतक विषमता है गुणों की
मैं, मेरे का अभिमान शरीर में
आत्मा के एकान्त की अनुभूति नही होती
अनेक जान पड़ता आत्मा ये ।
जबतक आत्मा में अनेकता तब तक
अधीन रहना ही पड़ता किसी के
जब तक परतंत्र है तब तक
भय बना रहता ईश्वर से ।
शोक, मोह की प्राप्ति होती उन्हें “
ये सब सुन उद्धव जी ने पूछा
“ देह आदि रूप गुणों में रहे जीव ये
उसके, कर्म और फल से क्यों नही बंधता ।
आत्मा जो गुणों से निर्लिप्त है
सर्वथा रहित देह आदि के सम्पर्क से
फिर इसे इस बंधन की
प्राप्ति होती है कैसे ।
श्रेष्ठ आप, भ्रम दूर करो मेरा
कि एक ही आत्मा अनादि गुणों के
संसर्ग में नित्यबुद्ध मालूम पड़ता है
और नित्यमुक्त असंग होने से ।