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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२९७ः लोकिक और पारलोकिक भोगों की असारता का निरूपण

श्रीमद्भागवत -२९७ः लोकिक और पारलोकिक भोगों की असारता का निरूपण

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भगवान श्री कृष्ण कहें, “ हे उद्धव

साधक को चाहिए कि मेरी शरण में

रहकर मेरे द्वारा उपदिष्ट

धर्मों का वो पालन करता रहे ।


जहां तक विरोध न हो उनसे वहाँ तक

वर्ण, आश्रम, कुल के अनुसार ही

निष्काम भाव से अनुशठान करे

उनसे जुड़े सदाचार का भी ।


पुरुष जो मेरी शरण में है

विषयों को छोड़कर उसे

अंतरमुख करने वाले निष्काम और

नित्य कार्य भी करने चाहिएँ ।


कर्म जो सकाम ना हों अथवा

जो बहिर्मुख बनाने वाले

उन कर्मों का बिल्कुल ही

त्याग कर देना चाहिए उसे ।


आत्म ज्ञान की उत्कट इच्छा

जब जाग उठे मन में उसके

कर्म सम्बन्धी विधि विघ्नों का भी तब

आदर नही करना चाहिए उसे ।


अहिंसा आदि धर्मों का तो

आदरपूर्वक सेवन करना चाहिए

परंतु शोच आदि नियमों का पालन करे

जो आत्मज्ञान के विरोधी ना हों वे ।


मेरा ही स्वरूप समझकर

सेवा करे अपने गुरु की

शिष्य को अभिमान ना करना चाहिए

बुरा ना सोचे किसी का भी ।


कहीं भी ममता ना हो उसकी

गुरु चरणों में दृढ़ अनुराग हो

परमार्थ सम्बन्धी ज्ञान प्राप्ति की

इच्छा बनाए रखे सदा वो ।


दोष निकाले ना किसी के गुणों में

और बात ना करे व्यर्थ की

शरीर अनित्य, अनेक और जड़ है

आत्मा नित्य, एक, चेतन सोचे यही ।


इस प्रकार देह की अपेक्षा

महान विलक्षणता है आत्मा में

अत्येव ये आत्मा अपना

सर्वथा भिन्न है ये देह से ।


लकड़ी से आग प्रज्वल्लित होती जब

तब लम्बाई, चौड़ाई अनेकता लकड़ी की

और उत्पति, विनाश उसका

सभी गुण ग्रहण कर लेती ।


परंतु सच पूछो तो उन गुणों से

आग का सम्बंध ना कोई

आत्मा युक्त जान पड़े शरीर से

उसके गुणों से रहित होने पर भी ।


अज्ञान ही मूल कारण है

जनम मृत्यु रूप संसार का

इच्छा करनी चाहिए जानने की

आत्मा को, वास्तविक स्वरूप जो अपना ।


अपने आप में ही स्थित आत्मा ये

और कोई आधार नही इसका

विद्यारूप अग्नि की उत्पत्ति के लिए

आचार्य, शिष्य ये दो अरनियाँ ।


नीचे ऊपर की अरनियाँ वे

मंथन काष्ठ उपदेश उनकी

ज्ञान अग्नि प्रज्वल्लित होती इसमें जो

वह विलक्षण सुख है देती ।


बुद्धिमान शिष्य इस यज्ञ से

सदगुरु द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करे

गुणों से बनी विषयों की

माया को भस्म वो कर दे ।


तत्पश्चात् वो गुण भी भस्म हों

यह संसार बना हुआ जिनसे

सबके भस्म हो जाने पर फिर

आत्मा के सिवा कुछ शेष ना रहे ।


तब वह ज्ञानअग्नि भी अपने

वास्तविक स्वरूप में शांत हो जाती

जैसे समिधा ना होने पर

आग बुझ जाती स्वयं ही ।


सब अनित्य , समस्त विपतियों से

मुक्ति मिलती आत्मज्ञान से

अभिमान व्यर्थ जो सुख पाना चाहते

अपनी बुद्धि और कर्म से ।


जब मृत्यु सिर पर नाच रही उनके

ऐसी कौन सी तब भोग सामग्री

या भोग वासना है जो

कर सकती उन को है सुखी ।


फाँसी पर लटकाने के लिए मनुष्य को

वध स्थान पर ले जाते हुए

क्या फूल, चंदन, स्त्री आदि

पदार्थ क्या संतुष्ट कर सकते ।


पारलोकिक सुख भी दोषयुक्त हैं

लोकिक सुखों के समान ही

क्योंकि बराबरी वालों में

दौड़ चलती है वहाँ भी ।


अधिक सुख भोगने वालों के प्रति

असूया होती है वहाँ

दोष निकालें उनके गुणों में

छोटों से होती है घृणा ।


प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने से

नष्ट हों वहाँ के सुख भी

कामना पूर्ण होने पर भी वहाँ

विघ्नों की संभावना बनी रहती ।


यजमान,ऋत्विज, कर्म आदि की त्रुटियों से

स्वर्ग प्राप्त होते होते रह जाता

यज्ञ, करने वाला पुरुष यज्ञों के द्वारा

देवताओं की करके आराधना ।


स्वर्ग में जाता है और वहाँ

देवताओं समान ही भोग भोगता

दिव्य विमान जो मिल जाता उसे

ले जाता वहीं, जहां जाना चाहता ।


गंधर्व उसका गान करते हैं

सुर सुंदरियों से विहार करे वो

अप्सराओं से क्रीड़ाऐँ करते करते

इतना बेसुध हो जाता वो ।


कि उसे इस बात का पता भी ना चले

कि समाप्त हो गए पुण्य मेरे

और धकेल दिया जाऊँगा

उसके बाद मैं यहाँ से ।


पुण्य शेष रहते जब तक

चैन की बंसी बजाए स्वर्ग में

परंतु पुण्य क्षीण होते ही

नीचे गिरना पड़ता है उसे ।


अधर्म परायण हो जाता जो कोई

संगत में पड़कर दुष्टों की

लम्पट होता, प्रणीयों को सताता

मनमानी करने लगे जो अपनी ।


पशुओं से भी गया बीता हो जाए

अवश्य वो गिरता नरक में

स्वार्थ, परमार्थ से रहित अज्ञान और

अंधकार में भटकना पड़ता उसे ।


सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म

हैं जो उनका फल है दुःख ही

शरीर की ममता में ही लगा रहे जो

जन्म मृत्यु की उसे प्राप्ति होती ।


क्या सुख की प्राप्ति हो सकती

मृत्युघर्मा जीव को ऐसे

लोकपालों की आयु भी बस एक कलप

वो भी भयभीत रहते हैं मुझसे ।


सत्व, रज और तम ये तीनों

गुण इंद्रियों को प्रेरित करते

उनके कर्मों में, और इंद्रियाँ

कर्म करतीं इस प्रेरणा से ।


जीव अज्ञानवश इन गुणों और

इंद्रियों को स्वरूप मान बैठे अपना

फल सुख, दुःख भोगने लगता

उनके किए हुए कर्मों का ।


जबतक विषमता है गुणों की

मैं, मेरे का अभिमान शरीर में

आत्मा के एकान्त की अनुभूति नही होती

अनेक जान पड़ता आत्मा ये ।


जबतक आत्मा में अनेकता तब तक

अधीन रहना ही पड़ता किसी के

जब तक परतंत्र है तब तक

भय बना रहता ईश्वर से ।


शोक, मोह की प्राप्ति होती उन्हें “

ये सब सुन उद्धव जी ने पूछा

“ देह आदि रूप गुणों में रहे जीव ये

उसके, कर्म और फल से क्यों नही बंधता ।


आत्मा जो गुणों से निर्लिप्त है

सर्वथा रहित देह आदि के सम्पर्क से

फिर इसे इस बंधन की

प्राप्ति होती है कैसे ।


श्रेष्ठ आप, भ्रम दूर करो मेरा

कि एक ही आत्मा अनादि गुणों के

संसर्ग में नित्यबुद्ध मालूम पड़ता है

और नित्यमुक्त असंग होने से ।


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