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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२८१; वासुदेव जी का यज्ञोत्सव

श्रीमद्भागवत -२८१; वासुदेव जी का यज्ञोत्सव

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श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित

कुन्ती, गान्धारी, द्रोपदि आदि ने

सुना कि भगवान की पत्नियाँ

कितना प्रेम करतीं हैं उनसे।


भगवान की प्रियतमा गोपियाँ ने भी सुना

सुनकर मुग्ध, विस्मित हो गयीं वे

प्रेम से सब के नेत्रों से

भर भर के आंसू छलक गए।


उसी समय बहुत से ऋषिगन

कृष्ण के दर्शन के लिए आए

व्यास जी, नारद, विश्वामित्र, गौतम

वशिष्ट, भृगु शिष्यों सहित अपने।


सभी लोग खड़े हो गए और

भगवान कृष्ण ने उनसे कहा

‘ धन्य है ! दर्शन पाकर आपका

हमारा जीवन सफल हो गया।


वास्तव में तीर्थ और देवता

संत पुरुष ही हैं, क्योंकि

जलमय तीर्थ और प्रतिमाएँ

पवित्र करते सेवा पर उनकी।


वे सब पवित्र करते हैं

बहुत समय तक जब पूजा करें

परंतु दर्शनमात्र संत के

ही हमको कृतार्थ कर देते।


अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी

जल, आकाश, वायु , देवता

उपासना करने पर भी ना कर सकें

पूरा नाश मनुष्यों के पाप का।


परन्तु यदि घड़ी दो घड़ी भी

महापुरुषों की सेवा की जाए

तो वे मिटा देते हैं

पाप ताप मनुष्यों के सारे ‘।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

ज्ञानसम्पन्न हैं श्री कृष्ण तो

गूढ़ भाषण सुनकर उनका ये

चुप रह गए वहाँ ऋषि मुनि जो।


उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी

कि भगवान ये क्या कह रहे

बहुत सोच विचारकर निश्चय किया

कि ये सब है लोकसंग्रह के लिए।


भगवान योगेश्वर होने पर भी

व्यवहार कर रहे हैं ऐसे

जैसे सामान्य जीव हो कोई

श्री कृष्ण से कहने लगे वे।


‘ आप की माया से हम बड़े बड़े

ज्ञानी भी हैं मोहित हो रहे

आप ईश्वर होते हुए भी

जीव की भाँति आचरण करते।


आपकी लीला अत्यंत विचित्र

परम आश्चर्यमयी है ये

आप परमब्रह्म परमात्मा

भक्तजनों की सदा रक्षा करते।


दुष्टों का दमन करने को

सत्वमयविग्रह प्रकट हैं करते

सनातन मार्ग की रक्षा करते हैं

सदा आप अपनी लीला से।


वेद आपका विशुद्ध हृदय है

साक्षात्कार उन्हीं से होता आपका

वेदों का आधारभूत ब्राह्मण हैं इसलिए

सम्मान करते आप ब्राह्मणों का।


जन्म, विद्या, तप, ज्ञान हमारा

सफल हो गया मिलकर आपको

परम फल आप स्वयं ही हैं

वास्तव में सभी कर्मों का तो।


आप सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान हैं

आपको कोई भी जान ना सके

क्योंकि पर्दे में ढक रखा है

अपने स्वरूप को स्वयं आपने।


आपके चरणकमलों का दर्शन

पाप ताप नष्ट कर देता

बड़े सौभाग्य की बात है

कि दर्शन हुआ हमें आपका।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, राज़र्षे !

स्तुति कर ऋषि मुनि जब जाने लगे

यह देखकर चरणपकड़कर

वासुदेव जी उनसे निवेदन करने लगे।


वासुदेव कहें ‘ सर्वदेव स्वरूप आप

मेरी एक प्रार्थना आपसे

जिन कर्मों से मोक्ष मिल जाए

उनका उपदेश आप मुझे दीजिए ‘।


नारद जी कहें ‘ हे ऋषियो

यह कोई आश्चर्य की बात नही

कि वासुदेव जी कृष्ण को

अपना बालक समझ रहें अभी भी।


लीला से मोहित हो अपने कल्याण का 

साधन हमसे पूछ रहे वे

अनादर का कारण हो संसार में

बहुत पास रहना मनुष्यों के।


पुरुष जो गंगा तट पर रहता

दूसरे तीर्थों में जाता है वो

कृष्ण स्वयं अद्वित्य परमात्मा

परंतु अपने को ढक लेते वो।


मूर्ख लोग तब समझते हैं कि

श्री कृष्ण ही हैं ढक गए

कुहरा जब नेत्रों को ढक लेता

सूर्य को ढका वो मान लें जैसे ‘।


ऋषियों ने वासुदेव से कहा

‘ कर्मवासनाओं और कर्मफलों को

नाश करने का यही उपाय कि

भगवान विष्णु की आराधना करो।


सुगम मोक्षसाधन का धर्म

और उपाय चित की शांति का

यही बतलाया है ज्ञानियों ने

गृहस्थों के लिए मार्ग कल्याण का।


धीर पुरुष इस प्रकार ही

इच्छाओं का त्याग करके वे

घर में रहते हुए ही

तपोबल का रास्ता लिया करते।


ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य सब 

ऋण लेकर पैदा होते वे

देवता, ऋषि और पितरों का

और छुटकारा इनसे मिलता इन्हें।


यज्ञ, अध्ययन और संतानोत्पत्ति से 

और पतन उनका है होता

जो संसार का त्याग करें

इन सबसे उऋण हुए बिना।


वासुदेव जी , आप अभी तक

ऋषि, पितृों के ऋण से मुक्त हुए

और अब यज्ञों के द्वारा

देवताओं के ऋण को चुका दीजिए।


इसके बाद गृहत्याग करके

भगवान की शरण में जाइए ‘

वासुदेव ने प्रणाम किया ऋषियों को

वरण किया ऋत्विजों के रूप में।


कुरुक्षेत्र में ही उनसे फिर

यज्ञ कराया, की विष्णु की पूजा

परशुराम जी के बनाए हुए

रामहृद में उन्होंने स्नान किया।


राजाओं को सम्मानित किया

नन्दबाबा को भी भेंटें दीं

कहें ‘ भगवान ने बंधन बना दिया

स्नेह, प्रेम का मनुष्यों के लिए ही।


आपकी मित्रता का बदला 

हम कभी भी चुका नहीं सकते

बंदीगृह में होने के कारण

आपका कुछ हित ना हम कर सके।


जब भगवान की दया हो गयी

तो धन के नशे में अंधे हो गए

आप हमारे सामने भी होते तो

तब हम आपको देख ना पाते।


दूसरों को सम्मान देकर भी

आप स्वयं सम्मान ना चाहते

कल्याणकारी पुरुष का भला इसी में

कि उसे राज्यलक्ष्मी ना मिले।


क्योंकि राज्यलक्ष्मी के आते ही

भाई बंधुओं को भी देखे वो ना ‘

इस प्रकार कहते वासुदेव का

हृदय प्रेम से गदगद हो गया।


नेत्रों से आंसू छलक गए

तब प्रसन्न करने के लिए उन्हें

नन्दबाबा भी तीन महीने

वहीं पर उनके साथ रहे।


यदुवंशियों ने सत्कार किया उनका

ब्रजवासियों को उन्होंने भेटें दीं

विदा ही फिर व्रज में गए वो

द्वारका को चले गए कृष्ण भी।




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