श्रीमद्भागवत -२२५ ; वरुणलोक से नन्द जी को छुड़ाकर लाना
श्रीमद्भागवत -२२५ ; वरुणलोक से नन्द जी को छुड़ाकर लाना
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी का
नंदबाबा ने पूजा की भगवान् की
और उस दिन उपवास भी किया।
उसी दिन रात में द्वादशी लगने पर
यमुना में प्रवेश किया स्नान के लिए
नन्दबाबाको मालूम न था कि
असुरों की है बेला ये।
रात को ही यमुना में घुस गए
वरुण के सेवक एक असुर ने
उस समय उन्हें पकड़ लिया
पास ले गए अपने स्वामी के।
नंदबाबा के खो जाने से
व्रज के सारे गोप रोने लगे
कृष्ण, बलराम को कहने लगे वो
कि तुम दोनों ही ला सकते उन्हें।
जब कृष्ण ने ये जाना कि
कोई एक सेवक वरुण के
मेरे पिता को ले गए हैं
वरुण के पास वो पहुँच गए।
लोकपाल वरुण ने देखा कि
उनके पास श्री कृष्ण हैं आये
उनकी बहुत पूजा की उन्होंने
और फिर निवेदन किया उन्हें।
सम्पूर्ण परमार्थ प्राप्त हुआ मुझे
वन्दना करता मैं आपकी
शुभ अवसर प्राप्त हुआ मुझे
सेवा का आपके चरणों की।
प्रभु मेरा ये अनुचर जो
बड़ा ही मूढ़ और अनजान ये
अपने कर्तव्य को भी नहीं जानता
पिता जी को ले आया आपके।
उसका अपराध क्षमा कीजिये
पिता जी को अपने ले जाईये
शुकदेव जी कहें, परीक्षित तब
वरुण कृष्ण की स्तुति करने लगे।
प्रसन्न हो कृष्ण, पिता को लेकर
अपने घर व्रज में चले गए
वरुण लोक के ऐश्वर्य और
सुख, संपत्ति को देखा था नन्द ने।
उन्होंने ये भी देखा कि
वहां के निवासी जो सारे
उनके पुत्र श्री कृष्ण के
चरणों में प्रणाम कर रहे।
बड़ा विस्मय हुआ था उनको
और जब वो व्रज में आये
सारी बातें देखीं जो वहां पर
जाती भाईयों को बतलायें।
भगवान् के प्रेमी गोपों ने सुना तो
कृष्ण को भगवान् समझने लगे वे
विचार करें कि कृष्ण हमें भी
स्वधाम अपना वो दिखलायेंगे।
उनके भक्त क्या सोच रहे
जान गए भगवान् भी बात ये
श्री कृष्ण स्वयं समदर्शी हैं
उनका संकल्प सिद्ध करने के लिए।
उन गोप गोपियों को अपने
परमधाम के दर्शन कराये
अक्रूर को स्वरूप दिखलाया था जिसमें
उस जलाशय में उनको ले गए।
डूबकी लगाई जब उन लोगों ने
ब्रह्मह्रद में प्रवेश कर गए
उसमें से निकालकर कृष्ण ने
परमधाम दिखलाया था उन्हें।
दिव्य भगवत्स्वरूप लोक देखकर
परमानन्द में मग्न हुए वे
वेद मूर्तिमान हो वहां पर
श्री कृष्ण की स्तुति कर रहे।