श्रीमद्भागवत -१३५ ; हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्भियों को समझाना
श्रीमद्भागवत -१३५ ; हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्भियों को समझाना
नारद जी कहें, वाराह भगवन ने
हिरण्याक्ष को मारा था जब
संताप बहुत हुआ हिरण्यकशिपु को
भाई के मर जाने पर तब।
भरी सभा में दैत्यों, दानवों को
सम्बोधन करके था उनसे कहा
शत्रुओं ने मेरे भाई को
विष्णु से है मरवा डाला।
इस विष्णु को कर लिया है
देवताओं ने अपने पक्ष में
पहले तो शुद्ध और निष्पक्ष था
पर अब देवताओं का पक्ष ले।
अब मैं अपने इस शूल से
गला काट डालूँगा उसका
और खून की धारा से उसकी
भाई का तर्पण करूंगा।
तभी शांति मिले मेरे ह्रदय को
देवता भी इससे ख़त्म हों
क्योंकि उनका जीवन विष्णु ही
इसलिए तुम सब पृथ्वी पर जाओ।
वहां जाकर ब्राह्मण, क्षत्रिय
तपस्या, यज्ञ, व्रत जो करते हों
और जो सभी शुभ कर्म हों करते
मार डालो जाकर उन सबको।
हिरण्यकशिपु की आज्ञा स्वीकार कर
प्रजा का उत्पीड़न करें दैत्य
स्वर्ग छोड़, छिपकर पृथ्वी पर
देवता लोग विचरते उस समय।
अंत्येष्टि के बाद भाई की
भतीजों को हिरण्यकशिपु समझने लगा
उनकी माता रुषाभानु और
माता दित्ती को उसने कहा।
हिरण्यकशिपु कहे, शोक न करो
किसी प्रकार का, हिरण्याक्ष के लिए
वीर तो चाहते ही हैं कि वो
रणभूमि में प्राण त्याग करें।
जीव मिलते और बिछुड़ते
आत्मा नित्य और अविनाशी
देह से पृथक, इस आत्मा को
शरीर समझ लेना, अज्ञान यही।
जन्म, मृत्त्यु, शोक और चिंता
सबका कारण, है अज्ञान यही
इस विषय में महात्माओं ने
एक प्राचीन कथा है कही।
यह इतिहास मनुष्यों के सम्बन्धिओं से
बातचीत है प्रभु यमराज की
ध्यान देकर सुनो तुम सब इसे
हिरण्यकशिपु ने तब ये कथा कही।
उशीवर देश का यशश्वी राजा
नाम सुयज्ञ था उसका
युद्ध में बाहें कट गयीं उसकी
शरीर खून से लथपथ हो गया।
जब सुयज्ञ मर गया तो
भाई बंधू बैठे घेरकर
रानियां जोर जोर से रो रहीं
पति की ऐसी दशा देखकर।
कहने लगीं, वीर! जहाँ जा रहे
वहां चलने की हमें भी दो आज्ञा
इच्छा उनकी न कि दाह के लिए ले जाएं
इतने में सूर्यास्त हो गया।
सम्बन्धिओं के विलाप को सुनकर
स्वयं यमराज वहां थे आये
बालक वेश में वो आये थे
उन लोगों को वे ऐसा कहें।
यमराज बोले, आश्चर्य की बात है
मरना, जीना ये सब देखते
ये सब सयाने हैं फिर भी
न जाने क्यों इतने मूढ़ हो रहे।
यह मनुष्य जहाँ से आया
चला गया वो अब वहीँ
एक न एक दिन जाना होगा
वहीं पर इन लोगों को भी।
फिर झूठ मूठ ये लोग सब
इतना शोक क्यों हैं करते
हम तो परम धन्य हैं
तुमसे लाख गुना हैं अच्छे।
माँ बाप ने हमें छोड़ दिया
शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं है
फिर भी किसी बात की हमें
मन में कोई चिंता नहीं है।
जिसने गर्भ में हमारी रक्षा की
रक्षा करता इस जीवन में भी
इस जगत को बनाता, रखता
और बिगाड़ता, ईश्वर वो अविनाशी।
ये एक खिलौना मात्र उस प्रभु का
और इस चराचर जगत को
दण्ड देने में वो समर्थ हैं
और पुरस्कार भी देते वो।
भाग्य अनुकूल होने पर रास्ते में
गिरी हुई वस्तु वहीँ पड़ी रहती
प्रतिकूल परन्तु भाग्य तो
तिजोरी में पड़ी हुई खो जाती।
देव की दयादृष्टि होती तो
जंगल में जीव है जीवित रहता
परन्तु विपरीत होने पर देव के
सुरक्षित हो घर पर भी मर जाता।
रानियों, मृत्यु सभी प्राणियों की
पूर्वजन्मों के कर्मों से होती
उनके अनुसार निश्चित समय पर
और ऐसे ही उनका जन्म भी।
आत्मा परन्तु शरीर से भिन्न है
गुण दोष से लिप्त नहीं वो देह के
देह में रहने वाली आत्मा
अलग और निर्लिप्त है उससे।
जैसे बुलबुले पानी के विकार हैं
घड़े आदि विकार मिट्टी के
गहने है स्वर्ण के विकार
समय पर बनते बिगड़ते।
वैसे ही विकार से बना ये शरीर
बन बिगड़ जाता है समय पर
पर उसमें रहे जो आत्मा
वो सदा अजर और अमर।
काष्ठ में रहने वाली अग्नि
अलग है जैसे काष्ठ से
देह में रहने वाली वायु का
कोई सम्बन्ध नहीं है उससे।
मूर्खो, शोक कर रहे जिसके लिए
वो सुयज्ञ नाम का शरीर तो
तुम्हारे सामने ही पड़ा है
फिर शोक क्यों कर रहे हो।
इसी को देखते थे तुम सभी
और जो सुनने, बोलने वाला था
कभी किसी को नहीं दीखता था
आज भी नहीं दिखाई दे रहा।
शरीर में जो महा प्राण है
बोलने या सुनने वाला वो नहीं
शरीर और प्राण दोनों से
पृथक है ये आत्मा होती।
यह शरीर को ग्रहण करता है
मुक्त भी हो विवेकबल से अपने
कर्मों से बंधा रहे बस तभी तक
जब तक युक्त रहे इस लिंगशरीर से।
आत्मा और शरीर का तत्व हैं जानते
इसीलिए ज्ञानी पुरुष जो
अनित्य शरीर के लिए न शोक करें
न करें शोक नित्य आत्मा के लिए वो।
एक बार एक जंगल में
एक बहेलिए था रहता
जाल फैला देता, फुसलाकर
चिडिओं को वो फंसा लेता।
एक दिन, कुलिंग पक्षी का जोड़ा
दाना चुग रहा, देखा उसने
शीघ्र ही फंसा लिया जाल में
मादा पक्षी को उनमें से।
दुःख हुआ नर पक्षी को
मादा को विपत्ति में देखकर
छुड़ा नहीं सकता था उसको
विलाप करने लगा वहींपर।
कहे, सब कुछ कर सकता विधाता
पर वो तो निर्दयी है बड़ा
मेरी सहचरी, एक तो स्त्री है
मेरे लिए वो रही छटपटा।
अगर वो चाहे तो मुझे ले जाये
इसे लेकर वह क्या करेगा
क्या करूंगा मैं इसके बिना
जीवन लेकर दुःख से भरा।
पर भी नहीं जमे हैं
अभी मेरे अभागे बच्चों के
कैसे पालूंगा मात्रहीनों को
मर जाने पर मेरी स्त्री के।
घोंसले में वो बच्चे सारे
बाट देख रहे होंगे माँ की
बहुत सा विलाप करने लगा
इस तरह वो नर पक्षी वहीं।
स्त्री के वियोग में आतुर हो रहा
आंसुओं से गाला रूंध गया
तबतक काल की प्रेरणा से
बहेलिये ने उसे बाण मार दिया।
बाण लगने से वहीँ मर गया
हे रानिओ तुम्हारी दशा भी
ऐसी ही है होने वाली
जैसी हुई थी उस पक्षी की।
अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं तुम्हे
इसके लिए तुम रो रही हो
इसे नहीं तुम पा सकोगी
छाती पीटने से आतुर हो।
हिरण्यकशिपु कहे कि छोटे से बालक से
ज्ञानपूर्ण बात ये सुनकर
सब के सब दंग रह गए
वहां जो थे सुयज्ञ के बंधुवर।
वो सारे ये समझ गए थे
कि समस्त संसार और दुःख सुख इसका
भगवान की माया है ये सब
और सब अनित्य और मिथ्या।
ये सब उपाख्यान सुनाकर
यमराज अंतर्धान हो गए
उसके बाद अंत्येष्टि कर दी
सुयज्ञ की, भाई बंधुओं ने।
इसलिए तुम शोक न करो
अपने लिए या किसी दूसरे के लिए
कौन अपना और कौन भिन्न है
अपना पराया क्या इस संसार में।
प्राणियों के अज्ञान के कारण ही
अपने पराये का दुराग्रह हो रहा
इस तरह की भेद बुद्धि का
और दूसरा कोई कारण ना।
नारद जी कहें, हे युधिष्ठर
हिरन्यासकशिपु की बात सुन, दित्ती ने
पुत्रशोक का त्याग कर दिया
चित लगा लिया परमात्मा में।
